भीमकुण्ड : रहस्मयी कुण्ड, न गोताखोर जान सके गहराई और न वैज्ञानिक भेद

भारत देश कई रहस्यों से भरा हुआ है। हर-पल कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ रहस्य से भरी बात हर किसी के सामने आती ही रहती है। ऐसा ही एक बेहद विचित्र रहस्य है जिसके सामने डिस्कवरी चैनल ने भी हार मान ली थी, उनके साथ गये सभी वैज्ञानिक इस रहस्य को कभी नहीं समझ सके। आइये जानते हैं आखिर भारत का ये कौन सा रहस्य है? यह रहस्य छतरपुर जिले की बड़ा मलहरा तहसील से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है प्रसिद्ध तीर्थस्थल है जिसका नाम है ‘भीमकुंड’। इसके आलावा इसे नील कुंड या नारद कुंड के नाम से भी जाना जाता है।

मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में स्थित यह स्थान प्राचीनकाल से ही ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों एवं साधकों की स्थली रही है। वर्तमान में ‘भीमकुंड’ धार्मिक पर्यटन एवं वैज्ञानिक शोध का केंद्र भी बन हुआ है। यहां स्थित जल कुंड भू-वैज्ञानिकों के लिए भी कौतूहल का विषय है। वास्तव में, यह कुंड अपने भीतर ‘अतल’ गहराइयों को समेटे हुए हैं। आश्चर्य की बात है कि इस जल कुंड में वैज्ञानिक कई बार गोताखोरी करवा चुके हैं, किंतु इस जल कुंड के तल को अभी तक कोई नहीं पा सका।

संरचना

यह जल कुण्ड वस्तुतः एक गुफ़ा में स्थित है। जल कुण्ड के ठीक ऊपर वर्तुलाकार बड़ा-सा कटाव है, जिससे सूर्य की किरणें कुण्ड की जलराशि पर पड़ती हैं। सूर्य की किरणों में इस जलराशि में मोरपंख के रंगों की आभा झलकती है। यह कहा जाता है कि इस कुण्ड में डूबने वाले का मृत शरीर कभी ऊपर नहीं आता जबकि आमतौर पर पानी में डूबने वाले व्यक्ति का शव एक समय पश्चात स्वयं ऊपर आ जाता है। कुण्ड में डूबने वाला व्यक्ति सदा के लिए अदृश्य हो जाता है। जब आप भीमकुण्ड के प्रवेश द्वार तक जाने वाली सीढि़यों से अंदर जातें हैं  तो यहां पर कुंड के चारों तरफ पत्थर ही पत्‍थर दिखाई देते हैं।

यहां लाइट भी कम होती है, लेकिन यहां का नजारा हर किसी का मन मोह लेता है। कुंड के ऊपरी सिरे पर चतुर्भुज विष्णु तथा लक्ष्मी का विशाल मंदिर बना हुआ है। विष्णु अपने तीन हाथों में गदा, चक्र एवं शंख धारण किए हुए हैं तथा एक हाथ अभय मुद्रा में है। लक्ष्मी अपने दाएँ हाथ में कमल के दो अविकसित पुष्प लिए हुए हैं तथा बायाँ हाथ दान मुद्रा में है। श्वेत पत्थर से निर्मित दोनों प्रतिमाओं के चेहरे पर स्मित-हास का भाव मन में आनन्द का संचार कर देता है। विष्णु-लक्ष्मी जी के मंदिर के समीप विस्तृत प्रांगण में एक प्राचीन मंदिर स्थित है, जिसके ठीक विपरीत दिशा में एक पंक्ति में छोटे-छोटे तीन मंदिर बने हुए हैं, जिनमें क्रमशः लक्ष्मी-नृसिंह, राम का दरबार तथा राधा-कृष्ण के मंदिर हैं।

वस्तुतः भीमकुण्ड एक ऐसा विशिष्ट तीर्थ स्थल है, जहाँ ईश्वर और प्रकृति एकाकार रूप में विद्यमान हैं तथा जहाँ पहुंच कर प्रकृतिक विशेषताओं के रूप में ईश्वर की सत्ता पर स्वतः विश्वास होने लगता है। भीम कुंड एक ऐसा तीर्थ स्थल है, जो व्यक्ति को इस लोक और परलोक दोनों के आनंद की अनुभूति कराता है। कहते हैं कि 40-80 मीटर चौड़ा यह कुंड देखने में बिल्कुल एक गदा के जैसा है।  

 भीमकुंड से जुड़ी पौराणिक कथाएं

 पौराणिक ग्रंथों में भीमकुण्ड का ‘नारदकुण्ड’ तथा ‘नीलकुण्ड’ के नाम से भी उल्लेख मिलता है। भीमकुण्ड के संबंध में कई कथाएँ प्रचलित हैं, जिनमें से प्रमुख हैं-

  1. देवर्षि नारद द्वारा सामगान का गायन।
  2. भीम द्वारा गदा प्रहार द्वारा जल के स्रोत प्रकट करना।

नारद द्वारा सामगान गायन

कथा के अनुसार एक बार नारद आकाश मार्ग से विचरण कर रहे थे। रास्ते में उन्हें अनेक विकलांग स्त्री-पुरुष दिखाई पड़े। वे स्त्री-पुरुष न केवल विकलांग थे, अपितु घायल भी थे तथा कराह रहे थे। यह दृश्य देख कर देवर्षि नारद दु:खी हो गए। वे उन स्त्री-पुरुषों के पास पहुँचे और उन्होंने उनसे उनका परिचय पूछा। उन स्त्री-पुरुषों ने बताया कि वे संगीत की राग-रागिनियाँ हैं। यह सुनकर नारद को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने राग-रागिनियों से पूछा कि तुम लोगों की ये दशा कैसे हुई? बताओ, तुम्हारे दु:ख-कष्ट को दूर करने के लिए मैं क्या कर सकता हूँ? नारद के पूछने पर राग-रागिनियों ने बताया कि पृथ्वी पर स्थित अनाड़ी गायक-गायिकाओं द्वारा दोषपूर्ण गायन के कारण हमारे अस्तित्व को क्षति पहुँची है। अब तो हमारा उद्धार तभी हो सकता है, जब संगीत विद्या में निपुण कोई कुशल गायक सामगान का गायन करे। नारद सामगान के ज्ञाता थे। राग-रागिनियों की बात सुनकर वे स्वयं को रोक नहीं सके और उन्होंने सामगान का गायन प्रारम्भ कर दिया।

विष्णु का द्रवीभूत रूप

देवर्षि नारद का स्वर तीनों लोकों में व्याप्त होने लगा। देवता सामगान के स्वरों में मग्न होने लगे। भगवान शिव नर्तन कर उठे तथा भगवान ब्रह्मा ताल देने लगे। सामगान के स्वरों को सुनकर तथा इस अलौकिक दृश्य को देखकर भगवान विष्णु इतने भाव-विभोर हो उठे कि वे द्रवीभूत होकर उसी स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ पीड़ित राग-रागिनियाँ एकत्र थीं। द्रवीभूत विष्णु का स्पर्श पाकर राग-रागिनियाँ स्वस्थ हो गईं। उन्होंने भगवान विष्णु से निवेदन किया कि वे द्रवीभूत रूप में सदा के लिए उसी स्थान में रुक जाएँ, जिससे अन्य पीड़ितों का भी उद्धार हो सके। भगवान विष्णु ने राग-रागिनियों की प्रार्थना स्वीकार कर ली और नील-जल के रूप में वहीं एक कुण्ड में ठहर गए। यही कुण्ड ‘नारदकुण्ड’, ‘नीलकुण्ड’ तथा ‘भीमकुण्ड’ के नामों से पुकारा जाता है। इस कुण्ड का वर्षा ऋतु का जल जलधर बादलों की भांति नीले रंग का दिखाई पड़ता है।

एक अन्य कथा के अनुसार देवर्षि नारद ने विष्णु की स्तुति में गंधर्व गायन प्रस्तुत किया, जिससे विष्णु अभीभूत हो उठे। वे भावातिरेक में एक जल कुण्ड में परिवर्तित हो गए तथा उनकी श्यामल त्वचा द्रवित होकर नीले जल में परिवर्तित हो गई।

भीम द्वारा जल स्रोत प्रकट करना

एक दूसरी प्रसिद्ध कथानुसार महाभारत काल में द्यूतक्रीड़ा में कौरवों से पराजित होने के बाद पांडव अज्ञातवास के लिए निकल पड़े। एक सघन वन से गुजरते समय द्रौपदी को बड़ी जोर की प्यास लगी। पांचों भाइयों ने आस-पास पानी ढूँढा, किन्तु वहाँ पानी का कोई स्रोत नहीं था। उन्होंने द्रौपदी को धीरज बंधाया और कुछ दूर और चलने को कहा। द्रौपदी भी अपनी प्यास पर नियंत्रण रखने का प्रयास करती हुई आगे बढ़ी। किन्तु कुछ दूर जाने पर द्रौपदी का प्यास के मारे बुरा हाल हो गया। वह मूर्छित होकर गिर पड़ीं। पांडवों ने पुनः पानी तलाशा। वहाँ आस-पास पानी की एक बूँद भी नहीं थी। उन्हें ऐसा लगा कि यदि द्रौपदी को अविलम्ब पानी नहीं मिला तो उसके प्राण-पखेरू उड़ जाएँगे।

युधिष्ठिर की सलाह

इस विकट स्थिति में स्वयं को हरसंभव प्रयत्न से शांत रखते हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने नकुल को स्मरण कराया कि उसके पास यह क्षमता है कि वह पाताल की गहराई में स्थित जल का भी पता लगा सकता है। युधिष्ठिर का कथन स्वीकार करते हुए नकुल ने भूमि को स्पर्श करते हुए ध्यान लगाया। नकुल को पता चल गया कि किस स्थान पर जल स्रोत है। अब समस्या यह थी कि भूमि को भेद कर किस प्रकार जल प्राप्त किया जाये।

भीम का गदा प्रहार

भीम द्रौपदी की दशा देखकर पहले ही क्रोध से व्याकुल हो रहे थे, जब उन्होंने देखा कि जल स्रोत का पता चलने पर भी जल के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं तो उहोंने क्रोधित होकर अपनी गदा उठाई और नियत स्थान पर गदा से प्रहार किया। भीम की गदा के प्रहार से भूमि की कई परतों में छेद हो गया और जल दिखाई देने लगा। किन्तु भूमि की सतह से जल स्रोत लगभग तीस फिट नीचे था। न तो वहाँ तक मूर्छित द्रौपदी को ले जाया जा सकता था और न ही जल को द्रौपदी तक लाया जा सकता था। ऐसी स्थिति में युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि- “अब तुम्हें अपनी धनुर्विद्या के कौशल से जल तक पहुँच मार्ग बनाना होगा।” यह सुनकर अर्जुन ने धनुष पर बाण चढ़ाया और अपने बाणों से जल स्रोत तक सीढि़याँ बना दीं। धनुष की सीढि़यों से द्रौपदी को जल स्रोत तक ले जाया गया। चूँकि भीम की गदा के प्रहार से भूमि में जो कुण्ड बना, वही कुण्ड ‘भीमकुण्ड’ कहलाया। इस स्थान पर द्रौपदी सहित पाण्डवों ने कुछ समय व्यतीत किया था।

वैज्ञानिक भी हैं हैरान

कई वैज्ञानिकों ने इस पर रिसर्च करके पता लगाने की कोशिश की कि इसका जल इतना साफ और स्वच्छ कैसे है? और इसकी गहराई भी जानना चाही लेकिन आज तक कोई भी इसके रहस्य को सुलझा नहीं पाया है। एक बार जब गोताखोर इसके अंदर गए थे तो उन्होंने बताया था कि अंदर 2 कुएं जैसे बड़े छिद्र हैं। एक से पानी आता है और दूसरे से वापस जाता है और उसकी स्पीड भी बहुत तेज है। तथा उन्होनें बताया की उन्हें इसकी गहराई में कुछ विचित्र और लुप्त प्राय जलीय जीव-जंतु देखने को जरूर मिले थे।

जब हमने यहां मौजूद लोगों से बात की तब उन्होंने बताया कि उन्हें लगता है कि इसका संबंध सीधे समुद्र से है, क्योंकि इस कुंड के एक तरफ से जहां जाली नहीं लगी हुई है, वहां से जो भी लोग इसमें डूबे हैं उनकी लाश तक नहीं मिली है। इसके अलावा जब समुद्र में सुनामी आई थी तब इस कुंड में भी हलचल हुई थी। इसके पानी की लहरें 10 फुट तक उठ रही थीं। उस समय यहां मौजूद सारे के सारे लोग डरकर बाहर निकल गए थे। भीमकुण्ड के बारे में कुछ लोग तो यह मानते हैं कि यह शान्त ज्वालामुखी है। यह पर्वतीय स्थल में गुफ़ा के भीतर कठोर चट्टानों के बीच जलकुण्ड के रूप में स्थित है तथा कुण्ड की गहराई अथाह है। एक बार तो सरकार की ओर से भी इसका तल जानने के लिए वॉटर पंप से यहां के पानी को निकाला गया था, तब भी यहां का स्तर कम नहीं हुआ।

ऐसा नील-निर्मल नीर शायद कहीं और नहीं

कुंड के जल की खासियत यह है कि यह अत्यंत निर्मल और नीले रंग का व पारदर्शी है। जिसकी वजह से कुंड की काफी गहराई तक अंदर तक की चीजें नजर आती हैं। कहा जाता है कि इसका पानी हिमालय के पानी जैसी गुणवत्ता वाला मिनरल वाटर है। लोग इसका जल बोतलों में भरकर अपने साथ ले जाते हैं।

परम्परा आज भी

18वीं सदी के अंतिम दशक में विजावर रियासत के राजा ने मकर संक्रांति पर यहां मेले का आयोजन किया । तब से यहां मेला लगाने की परम्परा निरंतर चलती आ रही है। मेले में हर साल हजारों लोग शामिल होते हैं।  

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