इस मंदिर के शिलालेखों पर इसे बनाने वाले छोटे-से-छोटे शिल्पी का भी नाम अंकित है पर इसको बनवाने वाले महादानी शिवप्रसाद गुप्त की महानता देखिए, स्वयं उनका नाम कहीं भी अंकित नहीं है।
यात्रा पार्टनर नेटवर्क : आपने मंदिर तो बहुत देखें होंगे पर क्या कोई ऐसा मंदिर देखा है जहां गर्भगृह और दीवारों पर किसी देवी-देवता की एक भी मूर्ति न हो? कई लोग कहेंगे कि यह सवाल ही फिजूल है, ऐसा भी कहीं हो सकता है क्या? जी हां ऐसा संभव है और इसकी गवाह है तीन लोक से न्यारी काशी। तो चलिए आपको ले चलते हैं वाराणसी के भारत माता मंदिर।
बाबा विश्वनाथ की नगरी जिसे दुनिया का सबसे प्राचीन नगर भी माना जाता है, में अनगिनत मंदिर हैं। गली, सड़क, घाट जहां भी नजर जाती है मंदिर ही मंदिर हैं। दिनभर घंटा ध्वनि, शंखनाद, भजन-कीर्तन, आरती से गूंजते रहने वाले इन मंदिरों से बिल्कुल अलग मां भारती को समर्पित यह अनूठा मंदिर वाराणसी जंक्शन रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूरी पर इंग्लिशिया लाइन और सिगरा चौराहे के बीच महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के परिसर में स्थित है।
वर्ष 1936 में स्थापित यह मंदिर अपनी विशिष्टताओं के कारण भारतीयों की “श्रद्धा का मंदिर” बन चुका है। अंग्रेजों की गुलामी में रहते-रहते स्वयं को दीन-हीन समझने लगे लोगों में राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत करने के लिए इसकी स्थापना की गई थी। उस दौर में करीब 10 लाख रुपये की लागत से काशी के रईश राष्ट्ररत्न शिवप्रसाद गुप्त ने इसका निर्माण कराया था।
दरअसल, शिवप्रसाद गुप्त ब्रितानिया हुकूमत से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे लोगों की हर संभव सहायता करते रहते थे। उस दौर में जब तमाम लोग अंग्रेजों का विरोध करना तो दूर, उनके विरोध की चर्चा तक सुनने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, गुप्तजी क्रांतिवीरों के सबसे ब़ड़े मददगारों में एक थे। यहां तक कि लोगों में देशप्रेम का भाव भरने के लिए “रणभेरी” को प्रकाशित करने का जोखिम भी उठाया। इसकी अगली कड़ी है देशप्रेम और दानवीरता का अनूठा और भव्य स्मारक- भारत माता मंदिर।
गुप्तजी को मंदिर के निर्माण की प्रेरणा पुणे स्थित कर्वे आश्रम में मिट्टी से बने भारत के एक मानचित्र से मिली जिसमें बड़ी कुशलता से पहाड़-नदी आदि आदि उकेरे गए थे। यहां उनके मन में यह भाव आया कि ऐसा ही एक मानचित्र काशी में भी बनाया जाए। संयोगवश गुप्तजी को इसके कुछ ही दिनों के बाद विदेश यात्रा करनी पड़ी। लंदन के एक संग्रहालय में ऐसे ही कुछ मानचित्र देखने को मिले तो भारत का सुंदर उठावदार मानचित्र बनाने की इच्छा और प्रबल हो गई। लेकिन, समस्या यह थी कि मिट्टी का मानचित्र टिकाऊ नहीं होता। काफी विचार-विमर्श के बाद तय हुआ कि मानचित्र संगमरमर का बनवाया जाए जो ज्यादा सुंदर और टिकाऊ होगा।
अब सवाल यह था कि ऐसे विशिष्ट कार्य की जिम्मदारी किसे सौंपी जाए। ऐसे में याद आए वाराणसी के मशहूर शिल्पी दुर्गा प्रसाद। दुर्गा प्रसाद ने भी अपनी इस जिम्मदेरी को बखूबी निभाया और शिवप्रसाद गुप्त की कल्पना साकार हो उठी। मंदिर का शिलान्यास चैत्र नवरात्र के प्रथम दिवस पर संवत् 1975 (1918 ईस्वी) में हुआ जबकि उद्घाटन संवत् 1984 (सन् 1936) की विजयदशमी पर महात्मा गांधी ने किया।
भारत माता मंदिर का यह सुंदर भू-चित्र संगमरमर का बना है। इसकी लंबाई और चौड़ाई क्रमशः 31 फुट 2 इंच और 30 फुट 2 इंच है। इसे बनाने में 11-11 इंच के 762 टुकड़ों के अलावा कुछ और छोटे-मोटे टुकड़े काम में लाये गए हैं। भारत भूमि की प्राकृतिक ऊंचाई-निचाई आदि पर दृष्टि रखते हुए ये टुकड़े बड़ी सावधानी और शुद्धता से काट-छांट कर लगाए गए हैं। इस मानचित्र में उत्तर में पामीर पर्वत शिखरों से लेकर दक्षिण में सिंहल द्वीप के दक्षिणी छोर डुवुंडुर तुडुव (डनड्रा) तक तथा पूर्व में मौलमीन और चीन की प्राचीन दीवार कहकहा से लेकर पश्चिम में हेरात तक का समस्त भू-भाग दिखाया गया है। इस मानचित्र में भारतीय सीमा से लगे समंदर भी उनकी कम या अधिक गहराई के साथ दर्शाए गए हैं। अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, भोट (तिब्बत), ब्रह्मादेश (म्यांमार), सिंहल द्वीप (श्रीलंका) और मलाया (मलेशिया) प्रायद्वीप का अधिकतर हिस्सा भी इसमें दर्शाया गया है। इस मानचित्र (मूर्ति पटल) में हिमालय सहित जिन 450 पर्वत चोटियों को दिखाया गया है उनकी ऊंचाई पैमाने के अनुसार एक इंच से 2000 फीट की ऊंचाई को दर्शाती है।
इसमें छोटी-बड़ी आठ सौ नदियों को उनके उद्गम स्थल से लेकर अंतिम छोर तक दिखाया गया है। अपने एक लेख में इस मानचित्र का विस्तार से वर्णन करने के बाद गुप्तजी ने लिखा था, “मानचित्र को भारतभूमि की सच्ची मूर्ति बनाने में कलाकार और शिल्पी ने अपनी ओर से कोई बात उठा नहीं रखी है।”
मंदिर के बीचोबीच मुख्य चौकोर मंडप में भारत माता का मकराना के संगमरमर का बना भूचित्र इतना बड़ा है कि दर्शनार्थी रेलिंग के सहारे किनारे खड़े होकर ही नक्शे की बारीकियों को समझ सकते हैं। भारत के इस अद्वितीय मानचित्र को संगमरमर पर साकार करने के लिए विशाल मंदिर बनाया गया है। इस मंदिर में संगमरमर पर कई शिलालेख हैं। मुख्य द्वार पर संपूर्ण वंदेमातरम् गीत अंकित है।
इस मंदिर के शिलालेखों पर इसे बनाने वाले छोटे-से-छोटे शिल्पी का भी नाम अंकित है पर इसको बनवाने वाले महादानी शिवप्रसाद गुप्त की महानता देखिए, स्वयं उनका नाम कहीं भी अंकित नहीं है।
इस अनूठे मंदिर में केवल एक बात खटकती है और वह है- प्रकाश की उचित व्यवस्था न होना। जब यह बना था तब देश में बिजली की उतनी अच्छी व्यवस्था नहीं थी पर आजादी के बाद भी यहां रोशनी का पर्याप्त इंतजाम करने का प्रयास नहीं किया गया। इस कारण शाम घिरते ही इसे बंद करना पड़ता है।
इस मंदिर के निर्माण के बाद गुप्तजी ने लिखा था, “भावनामय मनुष्य किसी भावना से प्रेरित होकर कोई कार्य कर जाता है। उसकी उपयोगिता का अनुभव आने वाली पीढ़ियां ही करती हैं। फिर भी कहा जा सकता है कि लोकशिक्षण की दृष्टि से यह भू-चित्र तथा भारतीय संस्कृति के क्षेत्र में गवेषणा करने वाले विद्वानों के लिए उपयोगी होगा।” दरअसल, गुप्तजी के मन में ऐसा मंदिर बनवाने की इच्छा थी जिसमें हर धर्म के लोग बेरोकटोक आ-जा सकें। वे चाहते थे कि भारत का मानचित्र हर भारतवासी के हृदय पर आराध्य माता के रूप में अंकित रहे और पूरा राष्ट्र एक सूत्र में गुंथा रहे।
इस मंदिर के उद्घाटन के अवसर पर महात्मा गांधी ने कहा था, “इस मंदिर में किसी देवी-देवता की मूर्ति नहीं है। यहां संगमरमर पर उभरा हुआ भारत का मानचित्र भर है। मुझे आशा है कि यह मंदिर सभी धर्मों, हरिजनों (दलितों) समेत सभी जातियों और विश्वासों के लोगों के लिए एक सार्वदेशिक मंच का रूप ग्रहण कर लेगा और इस देश में पारस्परिक धार्मिक एकता, शांति तथा प्रेम की भावनाओं को बढ़ाने में बड़ा योगदान देगा। इस तीर्थ का उद्घाटन करते हुए मेरे मन में जो भावनाएं उमड़ रही हैं, उनको मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहा हूं।”
आप जब भी वाराणसी जायें इस मंदिर में भारत माता के दर्शन अवश्य करें। भले ही काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी है, भैरव यहां के कोतवाल हैं, आदिशक्ति मां विशालाक्षी इस पर कृपा बरसाती हैं और गंगा इसके तट पखारती है पर देशप्रेम का उदात्त भाव तो यह अनूठा मंदिर ही जागृत करता है।