अमित शर्मा “मीत”@Yatrapartner
यह वह वक्त था जब दिन की चौखट पर शाम का हाथ थामे रात दस्तक दे रही थी। सुबह से एक लम्बा सफर तय करने के बाद झरने में घण्टों की मौज-मस्ती करके अब हम अपने टैंट में आ चुके थे पर थकान मानो हम लोगों से दूर कहीं नाराज और मायूस खड़ी थी और हम लोग अभी भी उस पर कोई तवज्जोह न देते हुए शाम से रात तक के रोशन सफ़र के ज़िक्र में लगे हुए थे। इसी दौरान बाहर से आवाज आयी, “दादा! आ जायें?” इसी के साथ पंकज सिंह कार्की दो प्लेट मैगी और सूरज भण्डारी दो कप चाय लिये टैंट में हाज़िर हो गये। पंकज सिंह और सूरज भण्डारी सुयालबाड़ी (Suyalbari) के पास स्थित ढोकाने जलप्रपात (Dhokane Falls) पर टैन्ट हाउसेज के केयरटेकर हैं और उन्हीं की शानदार मेजबानी में हम लोगों ने जलप्रपात और टैंट लाइफ के साथ-साथ दिवाली का भरपूर लुत्फ उठाया। (Unplanned trip to Kumaon)
बातों-बातों में साइकिल बाबा (संजीव जिन्दल) ने पंकज से पूछा कि भाई तुम्हारा घर कहां है तो उन्होंने पिथौरागढ़ के पास अपना घर होना बताया। सूरज ने बताया कि उनका घर यहां से तीन-चार किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पर है। यह सुनकर मैंने और साइकिल बाबा दोनों ने एक-दूसरे की आंखों में देखने के साथ ही दिवाली के मुस्तक़बिल को गढ़ते हुए एक आवाज में उससे कहा, “भाई आज की दिवाली हम तुम्हारे ही घर पर मनायेंगे।” (That diwali night with the mountains) यह सुनकर सूरज ने एक उजास भरी मुस्कुराहट के साथ हामी भर दी और बोला, “दादा आप लोग मैगी खा लो, फिर चलते हैं मेरे गांव।” कुछ ही देर में हम लोग सूरज के साथ उसके घर की ओर बढ़ चले।
पहाड़ों और जंगल से गुजरते ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्ते पर हम तीनों पूरी मस्ती के साथ बातियाते चल रहे थे। अभी कुछ ही कदम चले होंगे कि एक नदी सामने दिखी जिस पर एक टूटा हुआ पुल नजर आया। अक्टूबर में हुई तीन दिनी भीषण बारिश में यह बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था। गांव से इस पार आने का यही एकमात्र जरिया था। लिहाजा गांव वालों ने अपनी आवाजाही बरकरार रखने के लिए इस टूटे हुए पुल के पास ही बारिश में टूट चुके पुराने पेड़ो के तनों को आपस में जोड़कर एक रास्ता बना लिया था जिसे देखकर हम दोनों न केवल सहम गये बल्कि पहाड़ के लोगों के जीवन में आने वाली तमाम परेशानियों और हर रोज की मशक्कत के बारे सोचने लगे। एक पर्यटक की तरह दो-चार दिन पहाड़ों पर घूमने-फिरने, खाने-पीने और फोटो-वीडियो बनाकर शहर वापस चले जाने पर लगता है कि पहाड़ पर सब बढ़िया ही बढ़िया है मगर आप पहाड़ के जीवन को अगर करीब से महसूस करेंगे तो मालूम पड़ेगा कि यहां हर रोज कितनी ही तरह की दिक्कतों से जूझना पड़ता है। उस पर मजे की बात यह कि यहां के लोग मुस्कुराते हुए इन दिक्कतों-बाधाओं को पार कर जाते हैं। खैर! हम लोग सफर पर आगे बढ़ते हैं। (Kumaon Tourism)
काफी ऊंचाई पर पहुंचने के बाद हमें कुछ मकान नजर आने लगे। अंधेरा पूरी तरह पहाड़ों पर पसर चुका था। कुछ दूर और चढ़ाई के बाद आखिरकार हम लोग सूरज के घर पहुंच गये। इस पहाड़ी पर कुल तीन-चार ही घर थे जो सूरज और उसके चाचा-ताऊ के ही थे। हम लोग घर के बाहर ही पत्थरों के दालान पर कुर्सी डालकर बैठ गये। कुछ सुस्ता कर पानी पी रहे थे कि सूरज की चाची दियों से सजी थाली लेकर बाहर आयीं। उन्हें देखकर हम लोग इधर पूरी तरह दिवाली के मूड में आ चुके थे तो उधर सर्द हवा भी अपने पूरे मूड में थी और दियों को जलने से रोकने का प्रयास कर रही थी। पर कहते हैं ना कि जब ठान लो तो आंधी में भी दिया जलाया जा सकता है और वही हुआ भी। तेज हवा के बावजूद हम सबने मिलकर आखिरकार दियों को रोशन कर ही दिया। दियों को जलता हुआ देख मेरा एक पुराना शेर ज़ेहन में ताजा हो उठा-
“दिये का रुख बदलता जा रहा है
हवा के साथ जलता जा रहा है।”
सूरज के पिताजी अब हम लोगों को दिवाली पूजन के लिए बुलाने आ चुके थे। हम दोनों ने परिवारीजनों के साथ मिलकर दिवाली का पूजन किया। इसके बाद बतौर प्रसाद खोये के लड्डू खाने को मिले। आ..आहा! क्या ही कहूं; पहाड़ी गाय के दूध से निर्मित विशुद्ध खोये के वे लड्डू मुंह में जाते ही घुल जा रहे थे। उनके सामने शहरी दुकानों की सभी डिजायनर मिठाइयां फेल हैं। इसके बाद हम लोग सूरज के भाई-बहनों के संग दिये जलाने और पटाखे फोड़ने में मसरूफ हो गये। मुद्दतों बाद मैं दिवाली पर भीतर से भी खुश था और एक बच्चे की तरह इन पलों का खूब आनन्द ले रहा था।
इसी बीच सूरज की आवाज आयी, “दादा आइये भोजन कर लेते हैं।” हम लोग रसोई में सूरज की मां के पास जाकर बैठ गये। उन्होंने बताया कि हम लोगों के लिए पनीर की सब्जी बनायी गयी है। इस पर हम दोनों ने ही सूरज से पूछा कि क्या यह घर पर बनी है। सूरज का जवाब था, “नहीं दादा, यह तो बाहर से मंगवाई है आप लोगों के लिए।” इस पर हमने सूरज से कहा कि हम इसे नहीं खायेंगे क्योंकि हम कोई मेहमान नहीं, हम वही खायेंगे जो आज मां ने पकाया है। यह सुनकर रसोई में मौजूद घर के सभी लोग भौचक्के रह गए और मां मुस्कुराते हुए बोलीं, “हां-हां आज मैं आपको घर का ही सब खिलवाऊंगी।” और फिर शुरू हुआ हमारा पेट-पूजन।
मुहब्बत से सजी प्लेट में जख्या (जखिया) के तड़के वाले अरबी के गुटके, काफुली (पालक और मेथी के पत्तों का शाक) और तोर की दाल के साथ चूल्हे की गरमा-गरम रोटी। सब कुछ इतना लजीज कि शब्दों में बयां कर पाना मुश्किल है।
भोजन करके थोड़ी देर हम सूरज के पिताजी के साथ बातचीत करते रहे। रात के 9:30 बज चुके थे। लिहाज़ा वक्त और रास्ते को ध्यान में रखते हुए हमने टैंट में वापसी का फैसला किया और सभी घर वालों के साथ यादगार पलों को कैमरे में कैद करते हुए उनसे वापस जाने की इजाज़त मांगी। इस पर उन सबने हमसे कम से कम एक-दो रोज़ और यहीं ठहरने की दरख्वास्त की पर वक़्त की बन्दिशों से बंधे हम मजबूर लोग उन सबसे जल्द ही अगली मुलाकात का वादा करते हुए विदा ले आये और निकल पड़े सूरज का हाथ थामे उन्हीं जंगली-पहाड़ी रास्तों पर जिनसे होते हुए हम यहां तक पहुंचे थे।
रात घनी हो चुकी थी और दियों से सजी हुई सूरज के घर वाली पहाड़ी काफी पीछे छूट चुकी थी। चारों ओर था घना अंधेरा और घना जंगल। हर तरफ से जुगनुओं की रोशनी के साथ-साथ तमाम तरह की आवाज़ें मुसलसल आ रहीं थीं और हम तीनों अपनी ही धुन में रमकते हुए चले जा रहे थे, चले जा रहे थे।
बातचीत के दौरान हमने सूरज से पूछा कि रात में कौन-कौन से जानवर यहां अक्सर देखने को मिलते हैं। उसने बताया कि कई तरह के सांप, जंगली सुअर, जंगली कुत्ते और गुलदार अक्सर रात में उत्पात मचाते रहते हैं। कई बरस पहले एक बार बाघ भी आ चुका है यहां। हमने उससे पूछा कि तुम्हें डर नहीं लगता तो कम उम्र के उस नौजवान ने हंसते हुए कहा, “नहीं दादा हमारा तो हर रात का आना-जाना है लिहाजा कोई डर नहीं लगता। कभी गुलदार या बाघ सामने आ भी गया तो ज्यादा से ज्यादा क्या होगा; मुझे खा जाएगा, बस।” उसके इस बेफ़िक्री भरे जवाब ने हमें न सिर्फ उस भाई का कायल कर दिया बल्कि इस कम उम्र में उसके हौसले को देख बड़ा फख्र भी हुआ।
आपस में हंसते-बतियाते कब रास्ता गुजर गया, पता ही नहीं चला। अब हम अपने टैंट में आ पहुंचे थे। सूरज “गुड नाईट दादा” कहता हुआ पड़ोस के ही टैंट में चला गया और हम दोनों अपने टैंट में काफ़ी देर तलक आज के इन शानदार और यादगार लम्हात को यादों की माला में पिरोते रहे।