अमित शर्मा “मीत”@yatrapartner
होली हो अथवा दीपावली हमारे लिए त्योहारों का मतलब कुदरत रूपी जन्नत में सैर करना ही होता है। लिहाजा हमेशा की तरह इस बार भी दीवाली पर सुबह-सुबह अपने स्कूटर पर सवार हम दोनों यानी मैं और संजीव जिन्दल “साइकिल बाबा” निकल पड़े एक ऐसे सफ़र पर जो कितना रोमांचक और ख़ूबसूरत होने वाला था, हमें बिल्कुल भी अन्दाज़ा नहीं था। हां, अन्दाजा था तो बस इस बात का कि जिधर भी जायेंगे वहां कुदरत की बांहें हमें अपनी आगोश में समेटने के लिए बेताब हो रही होंगी।
बरेली से निकल कर हम पहुंचे सीधे महेन्द्रनगर जो सुदूर पश्चिम नेपाल (Nepal) के महाकाली अंचल में कन्चनपुर जिले का एक बड़ा और खूबसूरत नगर पालिका क्षेत्र है। आधिकारिक रूप से इसका नाम है “भिम् डत्ता नगर”। यहां की सरजमीं पर कदम पड़ते ही दिल से आवाज़ आयी कि अब जितने भी पल यहां बीतने वाले हैं वे सब हमारी बेशकीमती यादों की किताब के एक सुनहरे पन्ने पर हमेशा-हमेशा के लिए अपनी जगह बना लेंगे और हुआ भी ऐसा ही। (Wanderlust in Nepal: A trip to paradise during festivals)
महेन्द्रनगर (Mahendranagar) में हम सबसे पहले एक बेहतरीन शख्सियत और साइक्लिस्ट धाना तमांग अवस्थी के घर पहुंचे जहां दीवाली की भेंट और शुभकामनाओं के बाद अवस्थी साहब के हाथ की एक-एक प्याली गर्म चाय ने हमारे सफर की थकान काफूर कर दी। उसके बाद बिना देर किये हमारी होस्ट एवं दोस्त धाना (जिन्हें मैं धाना ब्रो बोलता हूं) के साथ हम निकल पड़े एक ऐसे खूबसूरत सफर पर जिसको मैं लफ्जों में बयां कर तो दूंगा पर उसके एहसास को जी सकने जितना नहीं।
धाना के साथ हम पहुंचे बेदकोट धाम जो कुदरत की हरियल चादर ओढ़े ईश्वर का एक सुकून भरा ठिकाना है जहां जाकर चित्त शांत और रूह खुश हो उठती है। साथ ही जंगल के बीच में ही है बेदकोट ताल जिसके किनारे बैठ कर ना केवल आप घंटों इस ताल के ठहरे हुए पानी में घने पेड़ों के अक्स को निहार सकते हैं बल्कि आत्मचिंतन और आत्ममंथन करने के लिए भी यह जगह एकदम शान्त और सुकून भरी है। अगर एक लाइन में कहूं तो प्रकृति प्रेमी इन्सान का इस जगह पर होना उसके लिए किसी वरदान से कम नहीं है। यहां काफी समय बिताने के बाद हम लोग धाना के संग आगे के सफ़र पर निकल पड़े।
बेदकोट की खुमारी अभी तक सिर पर चढ़ी थी कि कुदरत अपनी एक और नायाब कारीगरी से हमें रूबरू कराने के लिए बेसब्र हुई पड़ी थी। लिहाजा उसने धाना तमांग के रूप में एक ऐसा जरिया बनाया जिसके साथ हम उस ओर बे-सबब खिंचे चले गये और जाते भी क्यों ना, खुद मेरे इष्ट महादेव का बुलावा जो आया था।
खूबसूरत पर्वतीय मार्ग पर चलते हुए भूख भी जोर की लग आयी थी सो एक जगह स्वादिष्ट नेपाली खाना खाया। इसके बाद लगभग 10 किलोमीटर का और सफर तय करके हम तीनों पहुंच गये शिव लिङ्गगा धाम, एक ऐसी पावन जगह जहां आपका दिल सुकून से, आत्मा तृप्ति से और आंखें हैरानी से भर उठेंगी।
ईश्वरीय शक्तियां जब कुदरत के साथ मिलकर इनसान से अठखेलियां करती हैं तो करिश्मे ही होते हैं। इसी तरह हजारों सालों से यहां की चट्टानें हवा-पानी के करिश्मे के चलते लिंगाकार रूप में अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। इस करिश्मे का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी बीते अक्टूबर (2022) में 3-4 दिन की भीषण बारिश ने लिङ्गगा धाम के आस-पास के पूरे क्षेत्र को बर्बाद कर दिया, यहां तक की लिङ्गगा के पास तक पहुंचने का पूरा रास्ता नदी में बह गया पर ये लिंगाकार चट्टानें टस से मस नहीं हुईं। और हम भी ठहरे अव्वल दर्जे के घुमक्कड़ सो इस पावन लिङ्गगा धाम को करीब से देखने और महसूसने की हमारी जिद ने हमें चारों ओर फैले उस मलबे पर चलते हुए काफी मशक्कत के बाद वहां तक पहुंचा ही दिया। काफी समय गुजारने के बावजूद यहां से वापसी का मन हम लोग नहीं बना पा रहे थे। इसी के चलते वहां के आस-पास रहने वालों बुजुर्गों-बच्चों से काफी देर तक बातचीत करते रहे पर देखते ही देखते वक्त रेत की तरह हमारे हाथों से फिसल गया।
दीवाली का यह दिन ढलने को था और जगमगाती शाम हमारा इंतज़ार कर रही थी। लिहाजा आज के दिन की इन अनमोल यादों को दिल में समेटे हम लोग वापस धाना के घर की ओर चल पड़े।
थारू घर में दीवाली
आज का यह दीपावली का दिन तो कुदरत के सुकून भरे करिश्माई नजारों के साथ रोशन हो चुका था, अब बारी थी शाम के गुलज़ार होने की। शिव लिङ्गगा धाम के सौन्दर्य और उसके दर्शन कर हो रही आनन्दाभूति ने वहां से लेकर धाना ब्रो के घर तक की दूरी का हम लोगों को एहसास तक नहीं होने दिया। धाना ने हम लोगों से अपने घर में ही रुकने को कहा पर हम ठहरे अव्वल दर्जे के घुमक्कड़ सो भला एक जगह कैसे रुक सकते थे और हमारी किस्मत ने भी तो कुदरत के साथ सांठगांठ कर हमारे लिए और बहुत सारे सरप्राइज़ प्लान कर रखे थे। लिहाजा हम धाना ब्रो से अगले दिन की भूमिका तय करके रात के ठिये की तलाश में वहां से आगे निकल गये।
रास्ते में तय हुआ कि आज थारू समुदाय के किसी घर में दीवाली मनायी जायेगी। सो घूमते-तलाशते हम पहुंच गये शुक्लाफांटा वन्यजीव आरक्षित राष्ट्रीय निकुंज (Shuklaphanta Wildlife Reserve National Nikunj) के पास एक ऐसी ग्रामीण जगह जहां थारू कॉटेजेस के नाम से थारू जनजाति के लोगों के बहुत सारे छोटे-छोटे बिल्कुल देसी तरीके के शानदार घर थे। दो-तीन घरों का मौका-मुआयना करने के बाद आखिरकार हम जा पहुंचे एक ऐसे घर में जहां के लोग इतने शानदार मेजबान होंगे कि हम दो अनजाने-बेगाने घुमक्कड़ों को अपने परिवार का हिस्सा ही बना लेंगे, हमें अंदाजा भी नहीं था। यह घर था परसू राणा का जो पर्यटकों को अपनी सफारी गाड़ी से शुक्लाफांटा वन्यजीव निकुंज के ख़ूबसूरत नजारे दिखाते हैं।
परसू राणा के आवास के अंदर कदम रखते ही गांव की महक और उसका एहसास रोम-रोम में घर कर गया। बाहर की दहलीज से लेकर अंदर रसोई तक पूरी जमीन मिट्टी-गोबर से लिपी हुई थी जिस पर नंगे पांव चलने का सुखद एहसास मुझे अपने गांव की याद दिला रहा था।
दिन पूरी तरह ढल चुका था और दीवाली की रात जगमगाने के लिए बेताब थी। हम दोनों राणा जी के दोनों बेटों के साथ मिलकर रंगोली बनाने तथा दिये और मोमबत्तियां लगाकर घर को रोशन करने की कामयाब कोशिशों में जुट गये। वैसे एक बात कहूं, आप सब अपने घरों में तो दीवाली मनाते ही आ रहे हैं पर एक बार सिर्फ एक बार किसी दीवाली पर किसी दूसरे के घर का दिया भी रोशन करके देखिएगा, मन को एक अलग ही सुकून मिलेगा।
छिटपुट आतिशबाजी के बाद चारों ओर फैली मन में तारी हो जाने वाली खामोशी, सिसकते अंधेरे और मद्धम हवाओं के बीच जगमगाते घर किसी चित्रकार के कैनवास पर सजी सीनरी की तरह लग रहे थे। एक ओर सारा घर मुहब्बत की रोशनी से खिल उठा था और रात मुस्कुरा रही थी तो वहीं दूसरी ओर राणा जी की पत्नी केशवती राणा (मेरी केशू दी) लक्ष्मी पूजा की तैयारियां पूरी कर चुकी थीं। हम सबने मिलकर लक्ष्मी माता का विधिवत पूजन किया। केशू दी ने अत्यन्त स्नेह के साथ हमें प्रसाद दिया जिसमें खिलौना, लड्डू, पेठा और फल थे। इस प्रसाद को पाकर मुझे अम्मा-बाबूजी की बहुत याद आई, वे भी इसी तरह पूजा के बाद यही सब प्रसाद दिया करते थे।
अब बारी थी रात के भोजन की। केशू दी की रसोई से आ रही लाजवाब खुशबू हमारी भूख को और बढ़ा रही थी। कुछ ही देर में सुनायी दिया, “आइये खाना तैयार है।” हम लोग रसोई की ओर चल दिये। जमीन पर बिछे फूस के आसन पर बैठ कर किए गये शुद्ध नेपाली भोजन के स्वाद ने आत्मा को तृप्त कर दिया। कुछ पल पहले के अनजान घर में खुद के घर की महक महसूसने के बाद मन अब भावुक और आंखें गीली थीं।
घुमक्कड़ हूं यारों, पर्यटक नहीं
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संजीव जिन्दल : महेन्द्रनगर इतना खूबसूरत है कि लगता है कुदरत ने इसे फुर्सत में अपने हाथों से बनाया है। लेकिन, महेन्द्रनगर की खूबसूरती देखने के लिए धाना तमांग अवस्थी जैसा एक गाइड चाहिए। धाना बिटिया ने हमें न जाने कितनी नदियों और जंगलों की सैर करवा दी। एक अलग तरह का ही जज्बा था धाना में अपना शहर दिखाने का, “अंकल यहां चलते हैं, अंकल वहां चलते हैं।” कितना ही सफर स्कूटर पर किया और न जाने कितना पैदल-पैदल नदियों और जंगलों का सफर किया। मैं, अमित और धाना तीनों ही प्रकृति प्रेमी हैं इसलिए घूमने में अलग ही मजा आ रहा था। धाना तुम्हारी हिम्मत और जज्बे को मेरा सलाम। मैं घुमक्कड़ हूं यारों, पर्यटक नहीं।