@yatrapartner ज्यादातर भारतीयों में एक बात करीब-करीब समान है- हम बात-बात पर अपनी महान सभ्यता, संस्कृति और वास्तुकला की दुहाई देते हैं पर अपनी विरासत के बारे में लोगों की जानकारी बहुत ही कम है, कई लोग तो इस बारे में कोरे कागज के समान हैं। इस मामले में मेरी पोल भी समय-समय पर खुलती रही है। ऐसे ही हुआ था आज से करीब दो दशक पहले। वाराणसी के एक हिन्दी अखबार में काम शुरू करे कुछ ही दिन हुए थे। इसी दौरान वरिष्ठ साथी राजनाथ तिवारी ने एक दिन बातों-बातों में पूछ लिया, “पंडितजी पीसा की मीनार से भी ज्यादा झुकी हुई इमारत देखे हो का? हमारी काशी में ही है।” अकबका कर मैंने उनकी ओर देखा और कप से छलकी चाय मेज पर जा गिरी। चेहरा मेरी तरफ झुकाते हुए राजनाथ जी ने मेरी जिज्ञासा का समाधान किया, “कभी मणिकर्णिका घाट की तरफ जाने का कार्यक्रम बने तो देख आइयेगा, रत्नेश्वर महादेव (Ratneshwar Mahadev Temple) मन्दिर कहते हैं उसे।” (Ratneshwar Mahadev Temple: You will forget the tower of Pisa after seeing this)
राजनाथ तिवारी की बात दिमाग को खदबदा गयी। अगले ही साप्ताहिक अवकाश के दिन मैं बूंदाबादी के बावजूद लहुराबीर स्थित अपने डेरे से गांगाजी की ओर निकल पड़ा। वाराणसी के बारे में तब तक कोई खास जानकारी नहीं थी। शिव प्रकाश गुप्त मंडलीय जिला चिकित्सालय के पास पहुंच कर विचार कर रहा था कि किस दिशा में बढ़ना चाहिए कि एकाएक बद्री विशाल जी पर निगाह पड़ी। मणिकर्णिका घाट का रास्ता पूछते ही उनके चेहरे पर चिंता की लकीरों के साथ ही सवालिया निशान उभर आये। धीर-गंभीर आवाज में प्रतिप्रश्न किया, “क्या हुआ, सब कुशल तो है ना?” उनकी चिंता स्वाभाविक थी, बूंदाबादी के बावजूद कोई व्यक्ति महाश्मशान मणिकर्णिका घाट का रास्ता पूछे तो अनहोनी की आशंका होती ही है। बहरहाल उनसे वाराणसी के भूगोल की जानकारी लेकर मैं आगे बढ़ चला।
इधर-उधर डोलता हुआ सबसे पहले दशाश्वमेध घाट पहुंचा। बरसात के मौसम में उफनायी हुई गंगाजी को प्रणाम कर दशाश्वमेध घाट और राजेन्द्र प्रसाद घाट पर चहलकदमी करता रहा। इस बीच आसमान पर बादल और गहरे हो चुके थे। पैंट की जेब में हाथ डाले मैं काशी के पंचतीर्थ घाटों (असी घाट, दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट और मणिकर्णिका घाट) में शामिल मणिकर्णिका की ओर बढ़ लिया। चूंकि दिमाग में पीसा की मीनार से भी ज्यादा झुकी इमारत और रत्नेश्वर मन्दिर गूंज रहे थे, ऐसे में रत्नेश्वर मन्दिर (Ratneshwar Temple) को दूर से ही चीन्ह लिया। भावावेश में मेरे हाथ स्वयं ही जुड़ गये और मन्दिर में विराजित देवी-देवताओं को मन ही मन प्रणाम कर मैं उसी की दिशा में बढ़ लिया।
मणिकर्णिका घाट पर पहुंच कर देखा तो रत्नेश्वर मन्दिर (Ratneshwar Mahadev Temple) का काफी हिस्सा गंगा के पानी में डूबा हुआ था। दरअसल, वाराणसी में गंगा घाट पर जहां सारे मन्दिर ऊपर की ओर बने हैं, वहीं रत्नेश्वर मन्दिर घाट के नीचे स्थित है। इस कारण यह साल में छह से सात महीने गंगा नदी के पानी में डूबा रहता है। बाढ़ की स्थिति में नदी का पानी मन्दिर के शिखर तक पहुंच जाता है। बातचीत में पुजारियों ने बताया कि गंगा का पानी उतरने के बाद मन्दिर में भर गयी रेत आदि को हटाकर साफ-सफाई करने में ही काफी समय लग जाता है। इस कारण इस मन्दिर में साल में केवल केवल दो-तीन महीने ही पूजा-पाठ होता है।
नींव से 9 डिग्री झुका हुआ है यह मन्दिर
अब जरा इटली में स्थित लीनिंग टावर ऑफ पीसा अर्थात पीसा की झुकी मीनार (Tower of Pisa) के साथ रत्नेश्वर मन्दिर की तुलना हो जाये। वास्तुशिल्प का एक अद्भुत नमूना 54 मीटर ऊंची पीसा की मीनार अपने नींव से 4 डिग्री झुकी हुई है। रत्नेश्वर मन्दिर का वास्तुशिल्प भी अलौकिक है। इसकी ऊंचाई 13.14 मीटर है और यह अपनी नींव से 9 डिग्री झुका हुआ है। सैकड़ों वर्षों से यह मन्दिर एक ओर झुका हुआ है। आज भी यह रहस्य का विषय है कि प्रायः गंगा की धारा के बीच रहने वाला पत्थरों से बना यह वजनी मन्दिर टेढ़ा होकर भी सैकड़ों सालों से कैसे खड़ा है।
निर्माण को लेकर प्रचलित हैं कई कथाएं
स्थानीय लोगों के मुताबिक इन्दौर के मराठा साम्राज्य की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने वाराणसी में कई मन्दिरों, कुंडों और घाटों का निर्माण कराया था। उनकी दासी रत्नाबाई ने मणिकर्णिका घाट के सामने शिव मन्दिर बनवाने की इच्छा जताई और इस मन्दिर का निर्माण करवाया। उसी दासी के नाम पर इस मन्दिर का नाम रत्नेश्वर पड़ा। काशी के कई विद्वानों और पत्रकारों का भी यही कहना है कि महारानी अहिल्याबाई होल्कर की दासी रत्नाबाई ने इस मन्दिर का निर्माण करवाया था। आधार कमजोर होने के कारण कालांतर में यह एक ओर झुक गया। मन्दिर के झुकने का यह क्रम अब भी जारी है। इसका छज्जा कभी जमीन से आठ फुट ऊंचाई पर था लेकिन वर्तमान में यह ऊंचाई करीब सात फुट ही रह गयी है।
हालांकि रत्नेश्वर मन्दिर को लेकर एक दंत कथा भी प्रचलित है। कुछ लोगों के अनुसार इसका नाम “मातृऋण मन्दिर” है। उनके अनुसार एक राजा के सेवक ने अपनी मां के ऋण से उऋण होने के लिए इस मन्दिर का निर्माण कराया लेकिन निर्माण कार्य पूरा होते ही यह मन्दिर टेढ़ा हो गया। इसीलिये कहा गया है कि मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता।
कुछ लोग इसे “काशी करवट मन्दिर” बताकर बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को मूर्ख बनाते हैं जबकि “काशी करवट मन्दिर” कचौड़ी गली में है।
भारत सरकार हुई कुछ जागरूक
विडम्बना ही है कि जहां मात्र चार डिग्री झुकी पीसा की मीनार विश्व विरासत स्थल सूची में शामिल है, वहीं भारत में ही ज्यादार लोग रत्नेश्वर मन्दिर के बारे में नहीं जानते। हालांकि अब सरकार इस ओर कुछ जागरूक हुई है। भारत सरकार ने करीब एक चार साल पहले “अतुल्य भारत” अभियान के अन्तर्गत रत्नेश्वर महादेव मन्दिर पर पोस्टर जारी किया था। ट्विटर पर जारी इस पोस्टर में इस मन्दिर की तस्वीर के साथ ही इसकी वास्तुकला के बारे में जानकारी साझा की गई है। इसमें इसे वाराणसी के सबसे चमत्कारी मन्दिरों में से एक बताते हुए कहा गया है कि यह अपने आप में कई रहस्यों को समेटे हुए है।
ऐसे पहुंचें रत्नेश्वर मन्दिर
सड़क मार्ग : वाराणसी कई राजमार्गों और एक्सप्रेस-वे से जुड़ा है। दिल्ली के साथ ही उत्तर प्रदेश के सभी प्रमुख शहरों से यहां के लिए नियमित रूप से बस सेवा उपलब्ध है। आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे होते हुए दिल्ली से वाराणसी की दूरी करीब 863 किमी बैठती है।
रेल मार्ग : वाराणसी जंक्शन और बनारस (मंडुवाडीह) बाबा विश्वनाथ की नगरी के प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं। हावड़ा, सियालदह, दिल्ली, मुंबई और चेन्नई समेत देश के प्रमुख स्टेशनों से वाराणसी के लिए सीधी रेल सेवा है।
वायु मार्ग : वाराणसी के लाल बहादुर शास्त्री अन्तरराष्ट्रीय विमानतल के लिए देश के सभी हवाईअड्डों से सीधी उड़ानें हैं।