@yatrapartner-desk: देवीधूरा के मां बाराही धाम में विश्व प्रसिद्ध बग्वाल (पत्थर युद्ध) की कवरेज और उसको अपने अखबार के दफ्तर भेजने तक शाम के पांच बज चुके थे। अगले दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश था। ऐसे में तय किया कि यहां से सीधे अपने घर लौटने के बजाय लोहाघाट (Lohaghat) घूमा जाये। वही लोहाघाट जिसके बारे में नैनीताल के खोजकर्ता पीटर बैरन ने कहा था, “कश्मीर क्यों जाया जाये, अगर इस दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो वह यहां लोहाघाट में है।”
साथी फोटो जर्नलिस्ट ने अपने शहर की राह पकड़ी और मैंने अपनी मोटरसाइकिल लोहाघाट की ओर दौड़ा दी। करीब पौने दो घण्टे बाद मैं समुद्र की सतह से 1788 मीटर की ऊंचाई पर स्थित लोहाघाट पहुंचा तो सूर्यदेव अस्ताचल में जा चुके थे। आसपास के पहाड़ और घाटियां बिजली की रोशनी में अनोखी आभा बिखेर रही थीं। देवीधुरा से लौटने वाले श्रद्धालुओं और पर्यटकों की वजह से किसी होटल में कमरा मिलना मुश्किल हो गया। करीब आधा घण्टा भटकने के बाद जब मुझे एक होटल में कमरा मिला, लोहाघाट पूर्णिमा की चांदनी से नहा चुका था।
लोहावती नदी के किनारे बसे लोहाघाट का अपना पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है। मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण यह नगर चारों ओर से छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा है। गर्मियों के मौसम में बुरांस के लाल, गुलाबी और सफेद फूल इसकी छटा को और बढ़ा देते हैं।
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लोहाघाट का इतिहास
कत्यूरी राज में लोहाघाट (Lohaghat) को सुई नाम से जाना जाता था और यहां रौत वंश का शासन था। कुमाऊं के राजा सोम चन्द (700-721) ने अपने फौजदार कालू तड़ागी की सहायता से रौत राजा को परास्त कर इस क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया। सन् 1790 में आसपास के अन्य क्षेत्रों की तरह यह इलाका भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नियन्त्रण में आ गया और 1947 तक ब्रिटिश शासकों के अधीन रहा। अंग्रेज यहां की प्राकृतिक सुन्दरता से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने यहां कई रिहायसी भवन बनवाए। फर्नहिल और चनुवांखाल की भूमि चाय एवं फलोत्पादन के लिए लीज पर दी गयी। वर्तमान में यह उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले का तहसील मुख्यालय और नगर पंचायत है।
दर्शनीय स्थान
बाणासुर किला (Banasur Fort) :यह किला लोहाघाट शहर से करीब छह किलोमीटर दूर कर्णकरायत नामक स्थान से एक किलोमीटर ऊपर एक चोटी पर है। स्थानीय लोग इसे बाणाकोट और बानेकोट भी कहते हैं। इस किले का अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। ऊंचाई पर होने के कारण इस किले से 360 अंश तक चारों दिशाओं में बहुत दूर-दूर तक का नजारा साफ देखा जा सकता है। हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियां यहां से साफ दिखाई देती हैं। पर्यटन विभाग ने यहां एक शक्तिशाली दूरबीन लगा रखी है। इस किले का सम्बन्ध यूं तो द्वापर युग से जोड़ा जाता है पर वर्तमान किले का निर्माण 12वीं शताब्दी में चन्द राजाओं ने करवाया था।
पंचेश्वर महादेव मन्दिर :भगवान शिव को समर्पित यह मन्दिर लोहाघाट के पास शारदा और काली नदियों के संगम पर भारत-नेपाल सीमा की तलहटी में स्थित है। स्थानीय लोग इस मन्दिर को चौमू (इष्ट देवता) के नाम से भी जानते हैं। घने जंगल के बीच स्थित इस मन्दिर में नाग देवता के साथ भगवान शिव की मूर्ति और शिवलिंग स्थापित है। मिथकों के अनुसार पंचेश्वर महादेव जानवरों के रक्षक हैं और आसपास के गांवों के मवेशियों को सभी प्रकार की बीमारियों से बचाते हैं।
मायावती अद्वैत आश्रम (Mayawati Advaita Ashram) :यह आश्रम रामकृष्ण मठ की एक शाखा है। 1898 में अल्मोड़ा के अपने तीसरे प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानन्द ने “प्रबुद्ध भारत” के प्रकाशन कार्यालय को मद्रास से यहां स्थानान्तरित करने का फैसला किया। 19 मार्च 1899 को स्वामी विवेकानन्द के कहने पर उनके शिष्यों जेम्स हेनरी सेवियर और चार्लोट सेवियर ने इस आश्रम की स्थापना की। यह विवेकानन्द के मूल लेखन को प्रकाशित करता है। लोहाघाट से करीब नौ किमी की दूरी पर समुद्र की सतह से 1940 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस आश्रम को देखने के लिए दुनियाभर से भारी संख्या में लोग आते हैं। तरह-तरह के फूलों से सुशोभित रहने वाले इस आश्रम में असीम शान्ति का अनुभव होता है।
एबट माउन्ट (Abbot mount) :
यह लोहाघाट के सबसे बढ़िया आकर्षणों में से एक है। यहां हर तरफ फैली हरियाली और उसके बीच बने भव्य बंगले इस जगह की खूबसूरती को एक अलग ही रूप देते हैं। यहां से हिमालय की त्रिशूल, नन्दाकोट, नन्दाघुंघटी, नन्दादेवी आदि चोटियों के विहंगम दृश्य दिखायी देते हैं। आजादी से पूर्व जॉन एबॉट सबसे पहले इस स्थान पर पहुंचे और खुद के नाम पर पहाड़ी का नाम तय किया। उन्होंने यहां 13 कॉटेज बनवाए। लोहाघाट शहर से करीब सात किमी दूर स्थित इस स्थान पर ही भारत का सबसे हॉन्टेड अस्पताल है।
बालेश्वर मन्दिर (Baleshwar Temple) : यह मन्दिर भगवान विष्णु को समर्पित है। उपलब्ध ताम्र पत्रों में अंकित विवरणों के अनुसार इसका निर्माण काल सन् 1272 ईसवी माना जाता है। सन् 1420 में चन्द वंशीय राजा ध्यान चन्द ने अपने पिता ज्ञान चन्द के पापों से प्रायश्चित के लिए इसका जीर्णाद्धार कराया था। लगभग 200 वर्ग मीटर में विस्तृत मन्दिर परिसर में मुख्य मन्दिर के अतिरिक्त दो और मन्दिर भी हैं जो रत्नेश्वर तथा चम्पावती को समर्पित हैं। चम्पावती देवी के नाम पर ही चम्पावत नाम पड़ा है। मूलतः शिखर शैली पर निर्मित यह मन्दिर ठोस चिनाई के जगत पर आधारित है। इसको बनाने में बलुवा तथा ग्रेनाइट की तरह के पत्थरों का प्रयोग किया गया है। यह उत्तराखण्ड के राष्ट्रीय संरक्षित स्मारकों में से एक है। चम्पावत शहर में राष्ट्रीय राजमार्ग 125 पर स्थित यह मन्दिर लोहाघाट से करीब 13 किलोमीटर पड़ता है।
ऐसे पहुंचें
हवाई मार्ग : निकटतम एयरपोर्ट पन्तनगर में है जो यहां से करीब 182 किलोमीटर पड़ता है। यहां से गिनीचुनी उड़ानें हैं। बरेली एयरपोर्ट यहां से लगभग 190 किमी दूर है जहां के लिए मुम्बई, बंगलुरु, जयपुर और दिल्ली से नियमित उड़ानें हैं।
रेल मार्ग : निकटतम रेलवे स्टेशन टनकपुर लोहाघाट से करीब 87 किमी पड़ता है। लखनऊ, बरेली, दिल्ली, मथुरा आदि से यहां के लिए ट्रेन है।
सड़क मार्ग : लोहाघाट उत्तराखण्ड के सभी प्रमुख शहरों के अलावा बरेली, दिल्ली आदि से सड़क मार्ग से अच्छी तरह जुड़ा है। यहां से हल्द्वानी करीब 185, देहरादून 437, दिल्ली 439 और बरेली लगभग 200 किमी दूर है।