पहाड़ों से एक और मुलाकात

कौसानी - पहाड़ों से एक और मुलाकात 1

यायावरी —

अमित शर्मा मीत

चार महीनों की एकरस दिनचर्या को अल्पविराम देने का वक्त आ गया था। दरअसल, एक घुमक्कड़ के लिए इतने ज्यादा समय तक एक ही जगह पर टिके रहना उबाऊ हो जाता है, लिहाजा जेल से छूटे किसी कैदी के जैसा उतावलापन लिये मैं अपनी डेस्टिनी (स्कूटी) लेकर हमेशा की तरह पहाड़ों की ओर चल पड़ा। Another rendezvous with the mountains

यह पहली बार था जब सफर पर हम दो नहीं बल्कि चार लोग थे और यह ट्रिप आनन-फानन में जाने से एक दिन पहले ही तय हुई थी। अन्ततः दो स्कूटी पर हम चार बन्दे निकल पड़े कौसानी (Kausani) की वादियों की ओर। कौसानी  उत्तराखण्ड का एक बेहद खूबसूरत कस्बा है जो कुमाऊं मण्डल के बागेश्वर जिले की गरुड़ तहसील का हिस्सा है। बरेली से इसकी दूरी लगभग 240 किलोमीटर है जिसे हमने आराम से रुकते-रुकाते आठ घण्टे में पूरा किया।

हर बार की तरह इस बार भी हम सुबह पांच बजे निकल पड़े थे अपने सफर की ओर। हमारा पहला पड़ाव भीमताल के रास्ते पर स्थित एक रेस्तरां रहा जहां हमने बढ़िया नाश्ता किया, एक-एक कप कॉफी सुड़की और आधा घण्टा आसपास के प्रकृतिक दृश्यों को निहारते हुए बिताया, फिर चल पड़े आगे के सफर पर। दूसरा पड़ाव रहा बाबा नीम करौली के आश्रम कैंची धाम में जहां कुछ वक्त बिताने के बाद हम चल दिए कौसानी की ओर।

पहाड़ों पर आने के बाद अगर मैगी नहीं खायी तो मान लीजिये कि आपने पहाड़ पर होने के रिचुअल्स फॉलो ही नहीं किए। जी हां! रास्ते में सड़क के किनारे एक रेहड़ी पर रुक कर हमने मैगी खायी। सच मानिये, चारों ओर का नज़ारा इतना दिलकश था कि “दिल मांगे मोर” वाली फीलिंग आ गयी।

कौसानी (Kausani) पहुंच कर गांधी आश्रम के पास ही एक होटल में हमारा रहने का तय हुआ। जैसा कि मेरी आदत है, यात्रा के दौरान मैं रात होने से पहले आराम करने की सोचता भी नहीं, लिहाजा हमारे बाकी दो साथियों को आराम करता छोड़ मैं अपने भाई समान मित्र अर्नव के साथ आसपास के क्षेत्र में नेचर एक्सप्लोरिंग के लिए निकल गया।

पास ही के किसी मन्दिर से आती भजनों की धुन पर रमकते हुए हम दोनों हरेभरे वीरान रास्तों (ये रास्ते वीरान जरूर थे पर मुझसे अनजान नहीं) पर घण्टों टहलते और प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य को निहारते हुए सुकून का एहसास पाते रहे।

ऊंचे पुराने घने पेड़ों से लदे वे सुनसान रास्ते मानो अपने में ही बहुत-सी कहानियां समेटे हुए थे। चन्द पल उनके करीब बैठने से यूं लग रहा था कि अपने ही किसी दोस्त के पास बैठा हूं। हकीकत तो यह थी कि इन रास्तों के साथ गपशप करते हुए कब अंधेरा होने को आया, खबर ही नहीं हुई। सूरज को गर्त में जाता देखना भी उस शाम खूबसूरत लग रहा था क्योंकि आसमान अपने अलग ही रंगो में सराबोर हो चुका था। यह सब सुकून समेटे हुए अब हम अपने ठिये की ओर बढ़ चले।  

आसक्ति से अनासक्ति तक

समुद्र तल से 1,890 मीटर ऊंचाई पर कोसी और गोमती नदियों के बीच पिंगनाथ चोटी पर बसा खूबसूरत गांव “बलना” जो “कौसानी” के नाम से जाना जाता है, अपनी प्राकृतिक भव्यता के साथ-साथ सूर्योदय और सूर्यास्त के अद्भुत नज़ारों के लिए भी प्रसिद्ध है।

उस रोज मेरी आंख सुबह छह बजे खुल गयी थी और सूर्योदय का समय 6:50 बजे का था जिसे देखने की बेचैनी मुझे अपने कमरे के बाहर लॉबी में बनी एक खिड़की तक खींच कर ले गयी जहां से उगते हुए सूरज के साथ-साथ हिमालय पर्वत श्रृंखला के त्रिशूल, नन्दा देवी, नीलकण्ठ, चौखम्बा और पञ्चाचूली शिखर दिखाई देते हैं। इन अनिवर्चनीय दृश्यों को वहां पर रखे टेलिस्कोप के जरिये भी देखा जा सकता है।

पक्षियों के मधुर कलरव के बीच अपने नियत समय पर आसमान में नारंगी रंग की छटा बिखेरते हुए सूर्यदेव ने दर्शन दिए पर हिमालय की श्रृंखलाओं पर गहरी धुंध के चलते उसके हिमशिखरों को साफ-साफ देख पाना मुश्किल भरा रहा जो कि बरसात के मौसम में बिल्कुल आसान होता है। इस सबके बाद हमने रुख किया अनासक्ति आश्रम की ओर जिसे गांधी आश्रम के नाम से भी जाना जाता है।

स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान 1929 में जून माह के दूसरे पखवाड़े में महात्मा गांधी कुमाऊं के अल्मोड़ा जिले की यात्रा के दौरान कौसानी में एक चाय बागान मालिक के आतिथ्य में दो दिन के लिए रुके थे। सुबह-सुबह जब वह योग करने बाहर आये तो साक्षात हिमालय के दर्शन होने पर मंत्रमुग्ध हो गये। वह इस स्थान के सौन्दर्य और यहां के वातावरण में भरे अध्यात्म से इतना प्रभावित और सम्मोहित हुए कि दो के बजाय पूरे 14 दिन तक यहां रहे। यहां पर उन्होंने न केवल श्रीमद्भगवद्गीता पर आधारित अपनी पुस्तक “अनासक्ति योग” को पूरा किया बल्कि यहां के अनुपम सौन्दर्य के चलते कौसानी को “भारत के स्विट्ज़रलैण्ड” के रूप में भी वर्णित किया।

यह आश्रम महात्मा गांधी को बतौर श्रद्धांजलि बनाया गया था। इसीलिए उनकी अमर कृति “अनासक्ति योग”  के नाम पर उनकी इस विश्राम  स्थली को “अनासक्ति आश्रम”  का नाम दिया गया है। यहां एक छोटा प्रार्थना कक्ष है जहां हर सुबह-शाम प्रार्थना आयोजित की जाती है। यह आश्रम मानसिक शान्ति के लिए बनाया गया था और अपने उद्देश्य को भली भांति पूरा भी करता है। यहां गांधीजी के विचारों और तस्वीरों को प्रदर्शित करने वाला एक छोटा-सा संग्रहालय भी है। पर्यटकों के लिए आवासीय सुविधा भी उपलब्ध है।

यकीन मानिये दोस्तों! शान्ति,  आध्यातिमिक ऊर्जा और प्राकृतिक सुन्दरता से सराबोर इस आश्रम में घण्टा भर बिताने के बाद भी यहां से जाने का दिल नहीं कर रहा था।

मौज तारी इन रुद्रधारी

अनासक्ति आश्रम की आसक्ति को जैसे-तैसे नियन्त्रित करते हुए हमारा दल अपने अगले पड़ाव की ओर बढ़ चला था। कौसानी-अल्मोड़ा मार्ग पर कौसानी से लगभग 12 किलोमीटर दूर अब हम आ चुके थे उस जगह पर जहां कोसी नदी के तट पर स्थित रुद्रधारी (Rudradhari) (रुद्रहरि)  महादेव मन्दिर और रुद्रधारी जलप्रपात हैं। इससे भी ज्यादा दिलचस्प है यहां तक पहुंचने का तकरीबन 2.5-3 किलोमीटर लम्बा ट्रैकिंग रूट।  

रुद्रधारी एक प्राचीन गुफा है। ऐसी मान्यता है कि इस जगह का सम्बन्ध भगवान शिव और विष्णु से है। यह भी कहा जाता है कि कौशिक ऋषि ने यहां वर्षों तपस्या की थी और यहां का शिवलिंग स्वयं प्रकट हुआ था। इस कारण इसे सिद्धपीठ भी माना जाता है।

हम चारों अपने गाइड राजू बिष्ट के साथ इस ट्रैक पर चल पड़े। चीड़ के वृक्षों और प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य से सुसज्जित यह ट्रैक वाकई अनोखा है। ट्रैकिंग को लेकर अर्नव और हमारे बड़े भाई मस्ताना जी का यह पहला अनुभव था जो उनके लिए भी बेहद यादगार रहा।

बढ़ते-रुकते, गाते-गुनगुनाते हंसी-ठिठोली करते हुए आखिरकार हम पहुंच गये उस गुफा तक जिसमें महादेव का मन्दिर है। चारों ओर से हरियाली से ढके पहाड़ की गुफा में बने इस मन्दिर में दर्शन-पूजन करना अद्भुत-अलौकिक अनुभव रहा। हालांकि मन्दिर के पास ही स्थित प्रपात के देख कर थोड़ी निराशा जरूर हुई क्योंकि ऊपरी क्षेत्र में इस बार बारिश कम होने की वजह से जलधारा का वेग बहुत ही हल्का था, बाकी आनन्द बहुत आया।

कुछ देर यहां बिताने के बाद हम उछल-कूद, मौज-मस्ती करते हुए अपने ठिये पर वापस आ गये।  

भक्ति निष्काम इन जागेश्वर धाम

महाशिवरात्रि की पूर्व संध्या पर हम जागेश्वर धाम (Jageshwar Dham) पहुंच चुके थे। तय हुआ कि अगले दिन ब्रह्मवेला में अपने आराध्य भगवान शिव का रुद्राभिषेक किया जायेगा।

देवभूमि उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से करीब 35 किलोमीटर दूर पतित पावन जटागंगा के तट पर समुद्र तल से 6,200 फुट की ऊंचाई पर जागेश्वर गांव में स्थित जागेश्वर धाम (जागेश्वर मन्दिर) मान्यतानुसार लगभग 2,500 वर्ष प्राचीन है। शिव पुराण, लिंग पुराण और स्कन्द पुराण में भी इसका उल्लेख मिलता है। यहां के शिवलिंग को ज्योतिर्लिंग के सदृश्य माना गया है। इसे योगेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि लिंग के रूप में शिवपूजन की परम्परा यहां से ही शुरू हुई थी। जागेश्वर को उत्तराखण्ड का पांचवां धाम भी कहा जाता है।

इस धाम में करीब ढाई सौ छोटे-बड़े मन्दिर हैं। मुख्य परिसर में 125 मन्दिरों का समूह है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मन्दिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है- कत्यूरी काल, उत्तर कत्यूरी काल एवं चन्द काल।

गुप्त साम्राज्य के समय में बना और देवदार के जंगलों के बीच स्थित यह मन्दिर अपनी उत्कृष्ट बनावट और भव्यता के लिए भी जाना जाता है। इसका निर्माण पत्थर की बड़ी-बड़ी शिलाओं से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। इनके निर्माण में देवदार की लकड़ी और तांबे की चादरों का प्रयोग किया गया है।

महाशिवरात्रि के दिन जागेश्वर में प्रातःकाल तापमान दो डिग्री सेल्शियस था। हम सब चार बजे उठ गये और स्नानादि कर पांच बजे नंगे पांव मन्दिर परिसर पहुंचे। पुरोहित पण्डित संगम कैलाश भट्ट ने भगवान शिव का विधिवत अभिषेक और पूजन करवाया और साथ ही नागेश्वर महादेव और महामृत्युंजय महादेव के अलौकिक दर्शन भी। महाशिवरात्रि महापर्व के पावन अवसर पर आसानी से महादेव के दर्शन और पूजन कर पाना हम सभी के लिए सौभाग्य की बात थी। भक्ति की शक्ति ऐसी कि कि बर्फ जैसी शीतलता भरे परिसर में हम घण्टों नंगे पांव घूमते रहे। भगवान शिव की स्तुति, भजन और आरती के स्वरों ने पूरे परिसर को सकारात्मक ऊर्जा से भर दिया था। यह एक ऐसा अनुभव था जिसे हूबहू बयां कर पाना सम्भव नहीं है। इसे तो बस अनुभव ही किया जा सकता है।

बाबा वृद्ध जागेश्वर की परीक्षा

सुबह के सात बजने को थे। जागेश्वर धाम परिसर में भगवान शिव की विधिवत पूजा-आराधना के पश्चात हम लोग अपने ठिए पर वापस आ गये। हमारे दो साथी केशव और मस्तान भाई भारी थकान के चलते विश्राम मुद्रा में आ चुके थे जबकि मैं और अर्नव धन के देवता कुबेर के दर्शन के पश्चात अपने अगले पड़ाव की ओर चल दिए।

जागेश्वर धाम के ठीक ऊपर विराजमान वृद्ध जागेश्वर की धार्मिक महत्ता काफी है पर ढंग का रास्ता ना होने और ऊपर वाहनों की पार्किंग आदि की सुविधा ना होने की वजह से वहां तक कम ही लोग पहुंचते हैं। जागेश्वर धाम जाने के रास्ते में पनुवानौला से करीब पांच किलोमीटर पहले एक सड़क वृद्ध जागेश्वर को कटती है। यह सड़क सीधे शौकियाथल होते हुए सात किमी की दूरी तय करती हुई वृद्ध जागेश्वर पहुंचाती है जहां से हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं का शानदार नज़ारा दिखता है। चन्द राजाओं के समय में इस मन्दिर का निर्माण हुआ था। उन्होंने भट्ट ब्राह्मणों को यहां का पुजारी नियुक्त करते हुए उनके रहने के लिए बाकायदा बौड़ागोठ गांव बसाया था। यहां आज भी वृद्ध जागेश्वर के पुजारी परिवार रहते हैं। इस मन्दिर की सबसे बड़ी खासियत यहां स्थापित शिवलिंग का सीधे कैलास पर्वत की सीध में होना है।

जागेश्वर धाम से तीन किलोमीटर लम्बा एक कच्चा रास्ता सीधा बाबा वृद्ध जागेश्वर के मन्दिर पहुंचाता है। हम दोनों उसी ट्रैक पर चल पड़े। इस सफर का सबसे मजेदार वाकया यह रहा कि तकरीबन दो किमी चलने के बाद हम रास्ता भटक गये और घने जंगलों के बीच ऐसे रास्ते पर निकल गये जो मन्दिर तक पहुंचते-पहुंचते 8.5 किमी का हो चुका था।

महाशिवरात्रि का दिन था और इसे महादेव द्वारा ली जा रही परीक्षा मानते हुए हमने भी हार नहीं मानी और आधे रास्ते से वापस लौटने के बजाय आगे बढ़ते रहना तय किया क्योंकि हमें पूरा विश्वास था कि रास्ता चाहे कितना भी लम्बा क्यों ना हो, अन्त में पहुंचेगा तो शिव के धाम तक। वहां दूर-दूर तक ऐसा कोई बन्दा नहीं था जो हमें सही मार्ग बता सके पर हम भी भोले की भक्ति में मगन होकर भूखे-प्यासे आगे बढ़े जा रहे थे। रास्ते में एक-एक कर हमें तीन कुत्ते मिले जो उस सुनसान जंगली रास्ते में किसी सुहृदय साथी की तरह मन्दिर तक हमारे साथ-साथ चलते रहे।

अन्ततः हम भगवान शिव के दरबार में पहुंच गये। दर्शन-पूजन के पश्चात गर्भगृह से बाहर आये तो सामने दिख रहे हिमालय के बर्फ से ढके शिखरों के सौन्दर्य ने अभिभूत कर दिया। कुछ समय वहीं बिताने के बाद हम इस बार सही ट्रैक से होते हुए जागेश्वर धाम वापस आ गये। इस पूरे सफर के बारे में सोच-सोचकर हम ठीक वैसे ही खुश होते रहे जैसा कि कोई विद्यार्थी परीक्षा उत्तीर्ण करने पर प्रमुदित होता है।

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