पहाड़ों की गोद में होम स्टे

अमित शर्मा मीत

लप्रपात की आवाज के साथ मैं नींद की आखिरी लहर में गोते मार ही रहा था कि अचानक ऊंचे स्वर में “गुड मॉर्निंग बरेली, गुड मॉर्निंग फ्रेंड्स” सुनकर मेरी नींद टूट गयी। देखता हूं कि बराबर में बैठे अपने बुढ़ाई साहब (संजीव जिन्दल “साइकिल बाबा”) बरेली वालों को सुबह-सुबह फेसबुक लाइव के जरिये ढोकाने जलप्रपात के ठीक सामने बने हमारे टैंट के अन्दर से कुदरत के शानदार नजारे दिखा रहे हैं। बहरहाल, इस सबके बाद हम दोनों ने एक बार फिर जलप्रपात पर जाने का मन बनाया। सर्दी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सुबह का तापमान दो डिग्री सेल्सियस था। सर्द हवा के झोंके जिस्म को भेदने का प्रयास कर रहे थे और जलप्रपात में पानी का प्रवाह पिछले दिन की तुलना में कहीं ज्यादा था। इस सबके बावजूद किसी बच्चे की तरह पानी से खेलने की ललक आखिरकार हमें वहां तक फिर ले गयी। घण्टा भर मौज-मस्ती करने के बाद हम लोग अपने टैन्ट में वापस आये। अब किसी दूसरी जगह चलने का मन बनाने के बाद प्यारे भाई पंकज से विदा लेकर झरने और यहां के खूबसूरत नजारों को मोबाइल फोन के साथ-साथ अपनी आंखों में कैद करते हुए हम वहां से चल दिये। (Home stay in the lap of mountains)

सुयालबाड़ी (Suyalbari) से लगभग 55 किलोमीटर दूर पदमपुरी (Padampuri) पहुंचने के साथ ही हम लोगों का मन बना कि अब हमें आज का स्टे कनरखा गांव (Kanarkha Village) में करना है जो यहां से लगभग छह किलोमीटर की दूरी पर है। नैनीताल (Nainital) से 32 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर बसा कनरखा कुलजमा 50 घरों का एक छोटा-सा पर बेहद खूबसूरत गांव है। यहां खासकर आलू और मटर की खेती की जाती है जिनकी आपूर्ति पूरे नैनीताल जिले में होती है। इसी गांव में जयकिशन दानी का मशहूर “कफल कनरखा होम स्टे” है जो इस सफर में हमारी दूसरी मंजिल बना। मेरा ऐसा मानना है कि भरे-पूरे परिवार और मुहब्बती शख्शियात से लबरेज यह होम स्टे किसी भी घुमक्कड़ के लिए एक ड्रीम होम स्टे साबित हो सकता है। (Home Stay in Kanarkha)

कनरखा के पास पहुंचने के बाद एक खुली जगह पर साइड में स्कूटी लगायी ही थी कि जयकिशन जी हमें अपने गांव ले जाने के लिए आ पहुंचे। पहाड़ी के ऊपर की ओर इशारा करते हुए कहा, “बस वो है हमारा घर, यूं समझ लीजिये कि आप लोगों को 800 मीटर ही ऊपर चढ़ना है, बस्स…।” नीचे से ऊपर की दूरी का अंदाज लगाते हुए हम दोनों को इतना तो समझ में आ गया कि यह दूरी मीटर में नहीं बल्कि किलोमीटरों में तय होने वाली है। दूरी को कम बताना किसी भी नये मुसाफिर की हिम्मत को बढ़ाये रखने का सबसे कारगर तरीका है जो हम पूरी तौर पर भांप चुके थे।

बहरहाल कंटीले, पथरीले और संकरे रास्तों पर मौज काटते हुए हंसते-खिलखिलाते हम तीनों एक लम्बा रास्ता तय करके अपनी मंजिल पर पहुंच चुके थे और वहां पहुंचने के बाद जब चारों ओर का नज़ारा देखा तो सुबह से अब तक हमारे जिस्मों पर चढ़ी सारी थकान पल भर में हवा हो गई थी। चारों ओर तरतीब से लगे सालों पुराने पेड़ और उनसे लदे बड़े-बड़े पहाड़, एक ओर बीच में पसरी उपजाऊ भूमि पर गांव वालों द्वारा बनाये गये सीढ़ीदार खेत जिनमें तमाम-तरह की सब्जियां चमचमा रही थीं तो दूसरी ओर गाय-भैंसों का पालन हो रहा था। पहाड़ों के बीच से वो सूरज का दमकना, धूप में वो हल्का तीखापन और वो सर्द मद्धम हवा का बहना, सबकुछ मन को लुभा रहा था। ऐसा लगा मानो किसी अलग ही दुनिया में आ गये हैं हम लोग।

अपने कमरे में सामान रखने के बाद हम धूप में बैठ कर कड़क चाय की चुस्कियां लेते हुए दानी जी के बाऊजी के साथ गपशप करने लगे। कुछ ही देर में हमसे पूछा गया कि क्या भोजन करेंगे आप लोग? हर बार की तरह इस बार भी हमारा वही जवाब था कि जो भोजन आप लोग आज अपने लिए बनाने वाले हैं हम भी वही खायेंगे, कुछ भी विशेष नहीं। बल्कि हम लोग खुद आपके साथ खाना बनवायेंगे, साथ ही घर के बाकी और काम भी करेंगे। यह सुनने के साथ ही घर वालों के चेहरों पर मुस्कान तिर गयी। फिर हम सब जुट गये दोपहर के भोजन की तैयारियों में। खुले में बने एक चिमनीदार चूल्हे में हमने जखिया डालकर आलू के स्वादिष्ट गुटके बनाये। फिर तोर की दाल और गरमा-गरम चावल, गलगल एवं टमाटर के सलाद और पुदीना रायते के साथ हम सभी ने दोपहर का भोजन किया। कुछ देर आराम करने के बाद हमने गांव में घूमने का मन बनाया और जयकिशन जी के छोटे बेटे और उसके दोस्त के साथ पहाड़ पर ऊपर की ओर गांव देखने बढ़ चले। बताता चलूं कि ठेठ पहाड़ी गांवों में घर दो हिस्सों में बने होते हैं। नीचे का हिस्सा पशुपालन और अन्न भण्डारण के लिए होता है जबकि ऊपर का लोगों के रहने के लिए।

कनरखा सच में बहुत ही खूबसूरत गांव है जहां छोटे-छोटे घर हैं और बड़े दिल के लोग रहते हैं। हम दोनों कहीं बच्चों को आपस में खेलते तो कहीं बड़े-बुजुर्गों को दहलीज़ पर बैठे स्वेटर बुनते, सब्जी काटते देख रहे थे। हम वह सबकुछ देख रहे थे जो अब शहरों में देखने को कहीं भी नहीं मिलता क्योंकि हम शहर वाले तो बहुत एडवांस हो गए हैं ना…।

रास्ते में एक घर की छत पर एक बूढ़ी अम्मा साग काट रही थीं। हम लोग उनसे बातें करने लगे।  उनकी शादी से लेकर उनके अब तक के सफर पर काफी देर बात हुई और हम सब ऐसे घुलमिल गये जैसे अम्मा हमें और हम अम्मा को न जाने कबसे जानते हों। बातचीत के बाद जब हम चलने लगे तो अम्मा ने कहा, “बेटा रुको जरा। मैं अभी आती हूं।” कुछ ही देर में अम्मा हम दोनों के लिए दो कटोरी दही लेकर आयीं। ऐसा स्नेहशिक्त आतिथ्य देख हम लोग भावुक हो गये। ठेकी (लकड़ी का बर्तन) में जमाया गया वह एक दम ताजा, ठण्डा और मीठा दही ममता की कटोरी में पड़ने के बाद अमृत हो चुका था। उस वक्त मां की बड़ी याद आयी। दही खाकर अम्मा से जल्द ही मुलाक़ात का वायदा करते हुए विदा लेकर हम लोग बाकी गांव घूमते हुए वापस अपने होम स्टे पर वापस आ गये।

दिन ढलने को था और अब पशुओं के लिए चरी काटी जा रही थी। इस काम में हम दोनों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और सर्द मौसम में पसीने-पसीने हो गये। इसके बाद बारी थी रात के खाने की जिसमें बहुत कुछ मिलने वाला था। सर्द रात में मिट्टी-गोबर से लिपी रसोई में बैठकर अम्मा और घर की भाभियों की ममता की आंच में सिंकी और घर के शुद्ध घी से चुपड़ी मडुए की करारी रोटियों, अरबी के गुटके, आलू-बीन्स की सब्जी और दही-गुड़ ने मन के साथ साथ आत्मा तक तृप्त कर दी। खाने के स्वाद के अलावा वहां का वह खुशनुमा माहौल, घर के सभी लोगों का रसोई में बैठकर मुहब्बत से भोजन करवाना; सबकुछ इतना दिलचस्प और यादगार रहा जिसे लफ्जों में बयां करना बेहद मुश्किल है। (Home stay in the lap of mountains)

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