यह मंदिर कलिंग वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। 229 फीट ऊंचा मुख्य गर्भगृह 128 फीट ऊंची नाट्यशाला के साथ ही बना है। मुख्य गर्भगृह में प्रधान देवता का वास था किंतु वह अब ध्वस्त हो चुका है। मंदिर का मुख्य प्रांगण 857 फीट X 540 फीट का है।
यात्रा पार्टनर नेटवर्क : कोणार्क सूर्य मंदिर भ्रमण पर जाने का कार्यक्रम बनाने से पहले इसके बारे में अधिक से अधिक जानकारी जुटाने का प्रयास कर रहा था। इसी क्रम में रवीन्द्र नाथ टैगोर का एक लेख पढ़ने को मिला जिसमें उन्होंने इस मंदिर के बारे में लिखा है- कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है। गुरुदेव के इस लेख को पढ़ते ही तय कर लिया कि अब तो यहां जाना ही है। सच मानिये, यहां पहुंचकर जो देखा-जाना वह मेरी उम्मीद से अधिक था।
यह सूर्य मंदिर ओडिशा के समुद्र तट पर पुरी से लगभग 35 किलोमीटर उत्तर पूर्व में है। कोणार्क दो शब्दों कोण और अर्क से मिलकर बना है। कोण का अर्थ है कोना और अर्क का सूर्य यानि “सूर्य का कोना”। इस मंदिर को ब्लैक पैगोडा नाम से भी जाना जाता है क्योंकि मंदिर का ऊंचा टॉवर काला दिखायी देता है। यूनेस्को ने इसको 1984 में विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी।
ब्राह्मण मान्यताओं के आधार पर इस मंदिर का निर्माण 13वीं शताब्दी में पूर्वी गंगा राजवंश के राजा नरसिम्हदेव प्रथम (1238-1250 सीई) ने कराया था। मंदिर को बनाने के लिए 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया। उनको निर्देश थे कि एक बार निर्माण कार्य शुरू होने पर वे कहीं और नहीं जा सकेंगे। निर्माण सामग्री संभवतः नदी मार्ग से यहां लाई गई और विशाल पत्थरों को निर्माणाधीन मंदिर के निकट ही तराशा गया।
मंदिर की विशेषताएं
यह मंदिर कलिंग वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। 229 फीट ऊंचा मुख्य गर्भगृह 128 फीट ऊंची नाट्यशाला के साथ ही बना है। मुख्य गर्भगृह में प्रधान देवता का वास था किंतु वह अब ध्वस्त हो चुका है। मंदिर का मुख्य प्रांगण 857 फीट X 540 फीट का है। मुख्य मंदिर तीन मंडपों में बना था जिनमें से दो ढह चुके हैं। मंदिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं- बाल्यावस्था (उदित सूर्य) 8 फीट, युवावस्था (मध्याह्न सूर्य) 95 फीट और प्रौढ़ावस्था (अपराह्न सूर्य) 35 फीट।
मुख्य सूर्य मंदिर एक विशाल रथ की तरह है जिसके 12 जोड़ी सुसज्जित पहिये हैं और इसे सात घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। इसके पहिये समय भी बताते हैं। इन पहियों की छाया देखकर दिन के समय का सटीक अंदाज लगाया जा सकता है। प्रत्येक दो पत्थरों के बीच में लोहे की एक चादर लगी हुई है। मंदिर की ऊपरी मंजिलों का निर्माण लोहे की बीमों से हुआ है। मुख्य मंदिर के शिखर के निर्माण में 52 टन चुंबकीय लोहे का इस्तेमाल किया गया है। माना जाता है कि मंदिर का पूरा ढांचा इसी चुंबक की वजह से समुद्र की गतिविधियों को सहन कर पाता है। पत्थरों को स्थिरता प्रदान करने के लिए जंगरहित लोहे के कब्जों का प्रयोग किया गया है। पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोड़ों का पता न चले।
सूर्य की पहली किरण सीधे मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार पर पड़ती है। सूर्य की किरणें मूर्ति के केंद्र में हीरे से प्रतिबिंबित होकर चमकदार दिखाई देती हैं। प्रवेश द्वार के दोनों और दो विशाल शेर स्थापित किए गए हैं। इन शेरों द्वारा हाथी को कुचलता हुआ प्रदर्शित किया गया है। प्रत्येक हाथी के नीचे मानव शरीर है।
मंदिर की दीवारों पर देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वादकों, प्रेमी युगलों, दरबारियों, शिकार एवं युद्ध के चित्र उकेरे गए हैं। इनके बीच-बीच में पशु-पक्षी, बेल-बूटे और ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। मंदिर की दीवारों पर कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियां हैं जो मुख्यतः द्वारमंडपम के द्वितीय स्तर पर हैं।
खोज और संरक्षण
समय के थपेड़े खाते हुए यह अद्भुत मंदिर रेत, जंगल और झाड़ियों के बीच गुम हो गया। 1806 में यह एक बार फिर दुनिया के सामने आया। 1838 में एशियाटिक सोसाइटी ने पहली बार इसके संरक्षण की बात उठाई। यहां से जंगल, झाड़ियों और रेत को हटाया गया। उस समय मंदिर का जगमोहन सुरक्षित था जबकि मुख्य मंदिर का पिछला हिस्सा ध्वस्त अवस्था में था। चारों ओर खंडित मंदिर के पत्थर पड़े हुए थे। इस धरोहर के संरक्षण के गंभीर प्रयास सन् 1900 में शुरू हुए। खंडित हिस्सों को पुरानी संरचना के अनुसार संरक्षित करने का प्रयास किया गया। महामंडपम जो कि गिरने की हालत में था, को बचाने के लिए दरारों को पाटा गया। इसके लिए महामंडपम के आंतरिक भाग को पत्थरों से भर दिया गया। शेष दोनों ओर के दरवाज़े भी चिनाई करके बंद कर दिए गए। पत्थरों का रासायनिक उपचार करके मंदिर के स्वरूप को निखारा गया। संरक्षण का काम कई सालों तक चला। अन्य सामग्री को लेकर पास में ही एक संग्रहालय बनाया गया। 20वीं सदी के मध्य में इसे भारतीय पुरातत्व सर्व के अधीन कर दिया गया।
पौराणिक मान्यता
यह मंदिर सूर्य देव को समर्पित था जिन्हें स्थानीय लोग “बिरंचि-नारायण” कहते थे। इसी कारण इस क्षेत्र को अर्क या पद्म-क्षेत्र कहा जाता था। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को उनके श्राप से कोढ़ हो गया था। साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर कोणार्क में 12 वर्षों तक तपस्या कर सूर्य देव को प्रसन्न किया। सूर्यदेव, जो सभी रोगों के नाशक हैं, ने साम्ब के रोग का भी निवारण कर दिया। स्वस्थ होने पर साम्ब ने सूर्य देव का एक मंदिर बनवाने का निश्चय किया। चंद्रभागा नदी में स्नान करते समय उन्हें सूर्य देव की एक मूर्ति मिली। साम्ब ने अपने बनवाये मित्रवन में एक मंदिर में इस मूर्ति को स्थापित किया। तब से यह स्थान पवित्र माना जाने लगा।
आसपास के दर्शनीय स्थल
कोणार्क के आसपास सुंदर समुद्र तट, मंदिर और प्राचीन बौद्ध स्थल हैं। चंद्रभागा समुद्र तट, रामचंडी मंदिर, बेलेश्वर, पिपली, ककटपुर, चौरासी, बालीघई सहित कई और पर्यटन स्थल भी घूम सकते हैं। ये सभी सूर्य मंदिर से चार से पांच किलोमीटर के दायरे में स्थित हैं।
कहां ठहरे
यहां ट्रैवलर्स लॉज, कोणार्क लॉज, सनराइज, सन टेम्पल होटल, लोटस रिजॉर्ट, रॉयल लॉज जैसे निजी प्रतिष्ठान हैं जहां पर्यटक अपने बजट के अनुसार ठहर सकते हैं। सरकारी उपक्रम ओटीडीसी द्वारा संचालित पंथनिवास यात्रि निवास भी है।
ऐसे पहुंचें कोणार्क
हवाई जहाजः कोणार्क भुबनेश्वर हवाई अड्डे से 65 किमी दूर है। इस एयर पोर्ट से नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, विशाखापत्तनम जैसे प्रमुख भारतीय शहरों के लिए नियमित उड़ानें हैं।
ट्रेनः निकटतम रेलवे स्टेशन हैं भुबनेश्वर और पुरी। कोणार्क भुवनेश्वर से पिपली के रास्ते 65 किलोमीटर जबकि पुरी से 35 किमी दूर मैरिन ड्राइव रोड पर है। पुरी दक्षिण पूर्वी रेलवे का अंतिम प्वाइंट है।
बसः कोणार्क के लिए भुवनेश्वर से पिपली होते हुए करीब 65 किमी लंबा रास्ता है। यह पुरी से 35 किमी दूर है। पुरी और भुवनेश्वर से यहा के लिए नियमित बस सेवाएं संचालित होती हैं। निजी पर्यटक बस सेवाएं और टैक्सी भी उपलब्ध हैं।