ट्रैकिंग के हैं अपने नियम

ट्रैकिंग के भी हैं अपने नियम

संजीव जिन्दल

— घुमक्कड़ की डायरी —

दोस्तों, ट्रैकिंग के अपने कुछ नियम हैं (Tracking has its own rules), कुछ खास तरह के कपड़े हैं, वही आपको मानने और अपनाने होंगे, नहीं तो आप भी झारखण्ड की इन दो बहनों की तरह दिक्कत में आ जायेंगे। ट्रैकिंग का मतलब बन-ठन कर इण्डिया गेट के मैदान में घूमना नहीं है। ये दोनों महिलाएं मुझे ट्रायण्ड पर्वत (Triund mountain) के रास्ते में मिलीं। हाव-भाव देखकर ही लग रहा था कि मुसीबत में हैं। दोनों ने मोटी-मोटी जैकेट पहन रखी थी और पीठ पर ढेर सारे कपड़े ठुंसा हुआ बैग टंगा था। पसीने और थकावट के कारण जैकेट और बैग बहुत भारी लग रहे थे।

मैं जब भी किसी भी पहाड़ी स्थान पर ट्रैकिंग (Tracking) के लिए जाता हूं तो निजी गाइड जरूर करता हूं। मैंने अपने गाइड से पूछा, “क्या आप इनका सामान उठा लेंगे।” उसने कहा, “कोई दिक्कत नहीं।” मैंने 300 रुपये मजदूरी तय करवा दी। थोड़ी दूर चलने के बाद लगा कि हरे टॉप वाली बहन अब भी दिक्कत में है, उससे चला नहीं जा रहा। मैंने पूछा, “अब क्या दिक्कत है मैडम।“ “भैया मैंने एक गलती और की है। एक तो मैं जीन्स पहन कर आयी हूं और ठण्ड से बचने के लिए मोटी लैगिंग भी पहन रखी है।”

दोस्तों, ट्रैकिंग बने-बनाये रास्तों पर नहीं होती, कहीं-कहीं आपको दो से तीन फीट ऊंचे पत्थरों पर भी चढ़ना पड़ सकता है। जीन्स और लैगिंग मिलकर टांगों पर प्लास्टर का काम कर रही थीं। दोनों की कपड़े बदलने की इच्छा थी मतलब कि लैगिंग उतारने की। मैंने गाइड से पूछा, “आगे कोई ढाबा या कैफे पड़ेगा जहां ये कपड़े बदल सकें।“ गाइड ने बताया, “रास्ते में कुछ नहीं है, यदि हम चलते रहे तो डेढ़ घण्टे में टॉप पर पहुंच जायेंगे, वहीं यह सबकुछ हो सकता है।” पर यहां तो दोनों चलने में असमर्थ थीं। कोई ना कोई रास्ता तो निकालना ही था। आने-जाने वाले लोगों को रोकने के लिए मैं सड़क के एक तरफ खड़ा हो गया और गाइड को दूसरी तरफ खड़ा कर दिया। फिर कहा, “मैडम आप थोड़ा नीचे जाओ और पेड़ की ओट में कपड़े बदल लो।“ उसके बाद तो उनकी चाल देखने लायक थी।

ट्रैकिंग करने जायें तो ट्रैकिंग के नियमों और इस दौरान पहने जाने वाले कपड़ों का ध्यान जरूर रखें। यदि ध्यान रखेंगे तो मेरे जैसे मोटे लोग भी आराम से ट्रैकिंग कर लेंगे। ट्रैकिंग के दौरान आपको कभी भी जीन्स नहीं पहननी है, केवल और केवल स्ट्रेचेबल और फ्लैक्सिबल लोअर पहनना है। एक बात का ध्यान जरूर रखें, गाइड या पोर्टर जरूर कर लें, पांच सौ रुपये बचाने के चक्कर में ना पड़ें।

ट्रायण्ड पर्वत पर पहुंचकर दोनों बहनों ने मेरा कितना धन्यवाद किया होगा, आप खुद समझ सकते हैं। दुनिया में आये हो तो किसी न किसी तरीके से लोगों के काम आते रहो।

और मैं बन गया हेडमास्टर

“अरे बेटा थोड़ी चायपत्ती देना, मेरी खत्म हो गयी है।“ “अरे अंकल आपका हर रोज का यही काम है। फिर किसी से दूध मांगोगे, चीनी मांगोगे, बैठो मैं ही चाय बनाकर पिला देती हूं।”

मैकलोडगंज से केवल नौ किलोमीटर चढ़ाई चढ़कर मौसम में इतना ज्यादा फर्क आ जायेगा, किसी को उम्मीद नहीं थी। इसलिए कोई भी ऐसी भयंकर सर्दी से बचने का उम्दा इन्तजाम करके नहीं आया था। अपने-अपने टेण्ट में सोने के लिए लेटे तो ठण्ड बुरी तरह सता रही थी। इससे बचने का एक ही इलाज था, सबलोग खूब बातचीत करें, खूब चकल्लस करें ताकि हंसते-हंसते रात गुजर जाये और ठण्ड की तरफ किसी का ध्यान ही ना जाये। ऊपर पहाड़ पर मैं अकेला ही बुड्ढा था, इसलिए सभी का हेडमास्टर बन गया। जैसे सोशल मीडिया पर आप लोगों को हंसाता रहता हूं, वैसे ही वहां बच्चों को खूब हंसाया और हंसते-हंसते रात कट गयी।

ट्रायण्ड पर्वत की यात्रा, न्यूटन का नया नियम खोजने की यात्रा। ठण्ड से बचना है तो रातभर हंसना है।

सीखने और सिखाने का यात्रा

बड़े-बड़े सम्मेलन करके, मंच से भाषण देकर किसी को कुछ समझाना अपने को आज तक समझ नहीं आया। साइकिलिंग करते हुए मजदूर मिल जाते हैं तो उनके साथ-साथ साइकिल चलाते हुए उनको समझाने की कोशिश करता हूं, “भाई बच्चे दो ही अच्छे, वैसे तो एक ही बहुत है, उसे ही सही से खिला-पिला पाओगे, पढ़ा पाओगे।” ऐसे ही और भी प्रयास जारी रहते हैं।

ट्रायण्ड पर्वत की यात्रा के दौरान कुछ बच्चों से मुलाकात हुई। वे एक ही सिगरेट को एक-दूसरे को देकर सुट्टा मार रहे थे। मैं उनके पास पहुंचा तो मेरी उम्र का लिहाज करते हुए उन्होंने सिगरेट छुपाने की कोशिश की। मैंने बेबाकी से कहा, “अरे यार, मैं तो खुद सुट्टा मारने आया हूं और आप छुपा रहे हो। लाओ भाई, मुझे भी दो सुट्टे मारने दो। बस हो गयी ग्रुप में एंट्री।” दो सुट्टे मारे, बच्चों की मैगी खाई, चाय पी और खूब बातचीत की। बच्चों में पूरी तरह घुलने-मिलने के बाद उनसे कहा, “बच्चों मैं सिगरेट नहीं पीता हूं। आपको समझाने के लिए, आपमें घुलने-मिलने के लिए मैंने दो सुट्टे मारे। आखिर में यही कहूंगा कि अभी आपकी शुरुआत है, हो सके तो सिगरेट पीना छोड़ देना, बाकी आपकी मर्जी।” बच्चों का चेहरा बता रहा था कि वे इस पर सोचने को मजबूर हो चुके हैं।

बच्चों में घुसकर उन्हें समझाना, मतलब कि सर्जिकल स्ट्राइक करना मेरा समझाने का अपना तरीका है। ट्रायण्ड पर्वत की यात्रा, बहुत कुछ सीखने और बहुत कुछ सिखाने की यात्रा।

छह हजार में दिल्ली टू दिल्ली….

आठ दिसम्बर 2022 को मैं अकेले बैठा था। इसी दौरान मानो अन्दर से आवाज आयी, “मैं ट्रायण्ड पर्वत बोल रहा हूं। बैग पैक करो और मुझसे मिलने चले आओ।” मैंने तुरन्त ट्रैवलिंग एजेन्सी ढूंढी और उसे 1,500 रुपये ट्रांसफर कर दिये। आधा घण्टे में ही व्हाट्सएप पर नौ दिसम्बर की रात का मजनू का टीला (दिल्ली) से धर्मशाला का टिकट और 12 दिसम्बर का धर्मशाला से दिल्ली वापसी का टिकट आ गया। नौ दिसम्बर की दोपहर मैंने बरेली से दिल्ली के लिए बस पकड़ी और पांच बजे आनन्द विहार पहुंच गया। फिर मेट्रो पकड़ कर मुखर्जी नगर पंकज गंगवार के पास पहुंचा। इसके बाद हम दोनों घूमते रहे और पंकज ने रात को 9:30 बजे मुझे धर्मशाला के लिए वोल्वो बस में बैठा दिया। मुरथल में डिनर करने के बाद सुबह करीब सात बजे हम धर्मशाला पहुंच गये। रास्ते में कांगड़ा के पास मैंने ट्रैवल एजेन्सी को फोन कर दिया था कि मैं 45 मिनट में धर्मशाला पहुंच जाऊंगा, इसलिए वहां एक टैक्सी मैकलोडगंज के लिए मेरा इन्तजार कर रही थी। टैक्सी ने मुझे 7:45 बजे मैकलोडगंज के होटल में छोड़ दिया। ड्राइवर ने कहा, “आप थोड़ा आराम करिये, नहा-धोकर नाश्ता कर लीजिए, मैं 10:30 बजे लौटकर आता हूं आपको मैकलोडगंज घुमाने के लिए।”

ठीक 10:30 बजे मैं टैक्सी से मैकलोडगंज घूमने निकल गया। प्रमुख दर्शनीय स्थान दिखाने के बाद दोपहर दो बजे टैक्सी ड्राइवर ने मुझे भकसू नाग मन्दिर पर छोड़ दिया और कहा, “मन्दिर, प्राकृतिक जलस्रोत और झरना देखने के बाद आप होटल चले जाना, कल सुबह नौ बजे हम लोग आपको ट्रायण्ड पर्वत की यात्रा के लिए लेने आयेंगे। आपका डिनर होटल के पैकेज में शामिल है।” 11 दिसम्बर को सुबह ठीक नौ बजे मेरा पर्सनल गाइड रविन्दर मुझे लेने होटल पहुंच गया। चढ़ाई के पॉइंट तक हम लोग टैक्सी से गये और ठीक दस बजे ट्रायण्ड पर्वत की चढ़ाई शुरू कर दी। लोगों से मिलते-जुलते, बातचीत करते, हौसला छोड़ चुके लोगों को हौसला देते हुए डेढ़ बजे हम लोग ऊपर पहुंच गये।

क्या ही मनोहारी दृश्य था ऊपर का! फोटोग्राफी करते हुए कब शाम हो गयी, पता ही नहीं चला। सूरज ढलने के बाद वरुण देवता ने ठण्ड के साथ अपना विराट रूप दिखाना शुरू कर दिया। डिनर के बाद पूरा ग्रुप कैम्प फायर के इर्द-गिर्द बैठ गया और फिर शुरू हुआ धमाल- गानों, चुटकुलों, कहानियों और शेरो-शायरी का एक लम्बा दौर। थोड़ी-बहुत देर अपने-अपने टेण्ट में सभी लोगों ने आराम भी किया और सूर्योदय देखने के लिए सुबह छह  बजे ही सभी लोग अपने-अपने टेण्ट से बाहर भी आ गये। सूर्योदय देखने के बाद चाय-नाश्ता किया जोकि पैकेज में ही शामिल था। आठ बजे वापसी के लिए उतराई शुरू की और 11 बजे मैं मैकलोडगंज अपने होटल में पहुंच गया। कुछ सामान मैं नीचे ही होटल में छोड़ गया था। उसे पैक किया और बैग को पीठ पर लादकर फिर मैकलोडगंज घूमने निकल गया।

तीन  बजे टैक्सी मुझे धर्मशाला (Dharamshala) घुमाने तथा वोल्वो बस के पास छोड़ने के लिए मैकलोडगंज चौराहे पर आ गयी। टैक्सी मुझे धर्मशाला स्टेडियम के साथ-साथ दूसरे दर्शनीय स्थान घुमाती रही और 6:30 बजे एक मॉल पर छोड़ दिया। ड्राइवर ने बताया कि बिल्कुल इसके बगल से ही आपकी वोल्वो बस जायेगी। ठीक 8:15 पर बस दिल्ली के लिए चल दी। रास्ते में डिनर के बावजूद बस ने सुबह पांच बजे मुझे दिल्ली छोड़ दिया। मैं मेट्रो पकड़ कर कौशाम्बी पहुंचा और वहां से बस पकड़ कर बरेली। दोपहर ठीक 1:30 बजे मैं अपनी दुकान पर था।

दिल्ली से मैकलोडगंज (Mcleodganj) जाने-आने का बस का किराया, टैक्सी का पूरा सफर, मैकलोडगंज में एक रात होटल में रुकना, ट्रायण्ड पर्वत पर एक रात टेण्ट में रुकना, दो डिनर और दो ब्रेकफास्ट ये सबकुछ मात्र छह हजार रुपये के पैकेज में शामिल थे। बहुत ही शानदार और बहुत ही सस्ती यात्रा थी यह।

जहां गये, वहां के जैसे हो गये

“साइकिल बाबा, हमें भी आपके साथ घूमने जाना है।” “बाबा, अकेले-अकेले चले जाते हो, बता दिया करो, हम भी चलेंगे।” मेरे मोबाइल फोन पर इस तरह की कॉल आती रहती हैं और जब भी लोग मिलते हैं, उनका यही कहना होता है। मैं उनसे यही कहता हूं कि भाई लोगों, “मेरे साथ जाना इतना आसान नहीं है। आपको फोटो देखकर तो अच्छा लगता है पर असलियत में शायद आप लोग इस तरह से जीते नहीं हो।”

शाकाहारी व्यक्ति मेरे साथ जायेगा तो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से उसने यही ज्ञान प्राप्त कर रखा होगा कि तिब्बती या चीनी लोग केवल नॉनवेज ही खाते हैं। ऐसे में वह खाने के बारे में बहुत ज्यादा पूछताछ करेगा। कोई मुस्लिम दोस्त मेरे साथ जायेगा तो वह इसी उधेड़बुन में रहेगा कि नॉनवेज हलाल है या झटका। इसके विपरीत मुझे दुनिया देखनी है, लोगों के रहन-सहन और खानपान के बारे में जानना है। यह सब करने के लिए आपको उनके जैसा होना पड़ेगा। मैं जहां भी जाता हूं, वहीं के जैसा हो जाता हूं।

ट्राय़ण्ड पर्वत (Triund mountain) यात्रा में मुझे नहीं मालूम कि मैंने कितने लोगों के साथ खाया-पिया होगा। मोमो खाये पर यह नहीं पूछा कि वेज हैं या नॉनवेज हैं, नॉनवेज हैं तो हलाल है या झटका। इसलिए मेरे साथ जाना इतना आसान नहीं है। जहां भी गया, वहीं के जैसा हो गया, उनको अपने जैसा बनाने की कोशिश नहीं की।

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